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________________ तथा चातुर्मास काल को उत्तम बताया है । अल्पज्ञों, बालजीवों और छद्मस्थ प्राणियों के लिए सालम्बन ध्यान पुष्टावलम्बन रूप कहा है । जैनशासन के रहस्य-रत्नों के समान उद्धारक, तारक और पावनतम श्रीसिद्धचक्र भगवन्त के नवपद हैं। इन नवपदों में अरिहन्तादिक पञ्च परमेष्ठी गुणी हैं और दर्शनादिक चार पद गुणों के रूप में हैं। इन सर्वोत्तम गुणों के सम्पादन से ही पञ्चपरमेष्ठी पूज्य, वन्द्य और साध्य कहलाते हैं। अरिहन्तादिक पञ्च परमेष्ठी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों से प्रतिदिन पूज्य हैं। नामादिक चारों निक्षेपों में प्रथम स्थापना निक्षेप सर्वाधिक काल पर्यन्त अनेक भव्यजीवों के लिए अति उपकारी बनता है। इसीलिए जैनशासन में दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा देवगुरुधर्ममय श्रीनवपदजी की आराधना का विधान मुख्यरूप में कहा गया है । इसके अतिरिक्त जगत् में आत्मा के लिये अन्य कोई उत्कृष्ट पालम्बन नहीं है । ऐसे नवपदमय श्रीसिद्धचक्रभगवन्त की अनुपम आराधना के लिये वर्ष में दो समय बताये गये हैं (१) आसोज मास और (२) चैत्र मास । पहला आश्विन शुक्ला सप्तमी से आश्विन शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त नव दिनों का है और दूसरा चैत्र शुक्ला सप्तमी से चैत्र शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त नव दिनों का । श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-५
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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