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________________ ज्योतिष व्यंतर इन्द्रनो चउ चउ, पर्षदा त्रनो एको। कटकपति अंगरक्षक केरो, एक एक सुविवेको। परचरण सुरनो एक छेल्लो, ए अढ़ी अभिषेको। ' ईशान इन्द्र कहे मुज पापो, प्रभु ने क्षण अतिरेको ।। प्रा. ४ ॥ तव तस खोले ठवि अरिहाने, सोहमपति मनरंगे । वृषभ रूप करि शृग जले भरी, न्हवण करे प्रभु अंगे। पुष्पादिक पूजी ने छाँटे, करि केशर रङ्ग रोले। मंगल दीवो आरती करतां, सुरवर जय जय बोले ।। प्रा. ५ ।। भेरी भूगल ताल बजावत, वलिया जिन करधारी। जननी घर माता ने सोंपी, एणि परे वचन उच्चारी ॥ पुत्र तुम्हारो स्वामी हमारो, अम सेवक आधार । पंच धावी रंभादिक थापी, प्रभु खेलावरण हार ।। आ. ६ ।। * बत्रीश कोड़ी कनकपरिण माणिक, वस्त्रनी वृष्टि करावे । पूरण हर्ष करेवा कारण, द्वीप नंदीश्वर जावे ।। करिय अट्ठाई उत्सव देवा, निज निज कल्प सधावे । दीक्षा केवलने अभिलाष, नित नित जिन गुण गावे ।।प्रा.७।। तपगच्छ ईसरसिंह सूरीसर, केरा शिष्य वडेरा । सत्य विजय पंन्यास तणे पद, कपूर विजय गंभीरा ॥ खिमा विजय तस सूजस विजयना, श्री शुभविजय सवाया । पंडित वीरविजय शिष्ये, जिन जन्म महोत्सव गाया ॥आ.८।। उत्कृष्टा एकसौ ने सित्तेर, संप्रति विचरे वीश । अतीत अनागत काले अनंता, तीर्थंकर जगदीश ।। * अपनी शक्ति के अनुसार रुपया-पैसा भगवान पर निछरावल करना। ( 70 )
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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