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________________ बावना चंदन रस सम वयगे, अहित ताप सवि टाले । ते उवज्झाय नमीजे जे वलो, जिन शासन अजुवाले रे ।। भविका | सिद्ध ।। ५ । स्तुति अंग इग्यारे चउरे पूरव, गुण पचवोसना धारीजी । सूत्र अरथधर पाठक कहोये, योग समाधि विचारीजी ॥ तप गुरण शूरा श्रागम पूरा, नय निक्षेपे तारीजी । मुनि गुणधारी बुध विस्तारी, पाठक पूजो अविकारीजी ॥ १ ॥ श्री साधु पद चैत्यवंदन साहूरण संसाहिय संजमारणं, नमो नमो शुद्ध दयादमाणं ॥। १ ।। करे सेवना सूरिवायग गरिगनी, करू वर्णना तेहनी शी मुणिनी । समेता सदा पंच समिति त्रिगुप्ता, त्रिगुप्ते नहीं काम भोगेषु लिप्ता ।। २ ।। वली बाह्य अभ्यंतर ग्रंथि टाली, होये मुक्ति ने. योग्य चारित्र पाली । शुभाष्टांग योगे रमे चित्त वाली, नमु साधु ने तेह निज पाप टाली ।। ३ ।। स्तवन I जे तरुले भमरो बेसे, पीडा तस न उपावे । लेइ रस प्रातम संतोषे, तेम मुनि गोचरी जावे रे || भविका ।। सिद्ध ।। १ ।। पंच इंद्रिय ने जे नित्य जीपे, षट्कायक प्रतिपाल । संयम सत्तर प्रकारे प्राराधे, वंदु तेह दयाल रे || भविका ॥ सिद्ध ।। २ ।। अढार सहस्स शीलांगना • धोरी, अचल आचार चरित्र । मुनि महंत जयगायत वंदी, कीजे जन्म पवित्र रे || भविका ।। सिद्ध || ३ || नवविध ब्रह्म गुप्ति जे पाले, बारसविह तप शूरा । एहवा मुनि नमिये जो प्रगटे, पूरव पुण्य अंकुरा रे ॥ भविका ॥ सिद्ध ॥ ४ ॥ सोना ( 35 )
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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