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________________ षष्ठं पदं च यैरस्य, निर्मलं कलितं सदा । कृष्ण-श्रेरिणकमुख्यास्ते, श्लाघनीयाः सतामपि ।। २० ॥ सप्तमं पदमेतस्य, समाराध्य समाधितः । महाबुद्धिधना जाता, धन्या शीलमती सती ॥ २१ ॥ पदमस्याष्टमं सम्यग, यदाराद्धं पुरादरात् । तत् श्रीजम्बूकुमारेण, सुखेनाप्तं शिवं पदम् ॥ २२ ॥ अस्यैव नवमं शुद्धं, पदमाराध्य सम्मदात् । वीरमत्या महासत्या, प्राप्तं सर्वोत्तमं फलम् ।। २३ ॥ कि बहूक्तेन भो भव्या, अस्यैवाराधकर्नरैः । तीर्थकृन्नामकर्माऽपि, हेलया समुपाय॑ते ।। २४ ।। ' अर्थ-जे जीव आज पर्यन्त भूतकाल में मोक्ष गये हैं, अभी वर्तमानकाल में मोक्ष पाते हैं और भविष्यत्काल में मोक्ष पायेंगे वे सभी जीव क्रमशः श्रीनवपदजी की आराधना करके ही गए हैं, पा रहे हैं और पायेंगे। __ (मन-वचन-कायारूप) त्रिकरण शुद्धि से इस नवपद पैकी एक भी पद की आराधना करके अनेक आत्माएँ राज्यादिक की सम्पत्ति प्राप्त करने वाली हुई हैं। जैसे (१) श्रोसिद्धचक्र-नवपदजी के पहले श्रीअरिहन्त पद का पाराधन करके मनुष्यों में देवपाल ने और देवताओं में श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३२६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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