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________________ श्रीसिद्धचक्र-नवपद के आठ पदों की आराधना तप द्वारा ही हो सकती है । तप कर्मनिर्जरा का प्रबल साधन है। चारित्र आते हुए नूतन-नवीन कर्मों को रोकता है, तप पुराने कर्मों का क्षय करता है और नये कर्मों को रोकता है । तप के दो भेद हैं---(१) बाह्यतप और (२) अभ्यन्तर तप । बाह्यतप के छह भेद हैं और अभ्यन्तरतप के भी छह भेद हैं। दोनों मिलाने पर तप के बारह भेद होते हैं। उसमें छह प्रकार के बाह्यतप क्रमशः इस प्रकार हैं--- अरणसणमूगोअरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाप्रो । कायकिलेसो संलीगया य बज्झो तवो होइ ॥१॥ (नवतत्त्वप्रकरण, गाथा-३६) (१) अनशन, (२) ऊनोदरिका, (३) वृत्तिसंक्षेप, (४) रसत्याग, (५) कायक्लेश और (६) संलीनता । (१) अनशन तप-अन् यानी नहीं, प्रशन यानी आहार । अर्थात् शास्त्रविधिपूर्वक आहार का जो त्याग करना वह 'अनशन तप' कहा है। व्रत-पच्चक्खाण की अपेक्षा बिना, केवल भूखे रहने से अनशन तप नहीं हो सकता। यह तो लंघन कहा जाता है। अनशन तप में अशन, पान खादिम और स्वादिम रूप चार प्रकार के आहार का त्याग होता है। प्रशन के आठ प्रकार हैं--- श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२६०
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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