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कहा जाता है। करण, क्रिया के समुदाय का नाम है। जिसके सत्तर (७०) प्रकार यानी भेद हैं। उसमें चार प्रकार की पिंड विशुद्धि अर्थात् अाहार, वस्त्र, पात्र एवं उपाश्रय-स्थान की गवेषणा प्रादि, ईर्यासमिति आदि पांच समितियाँ, अनित्यादि बारह भावनायें, मासिकी आदि बारह प्रतिमायें, स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों का निग्रह, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन प्रकार की गुप्ति एवं चार प्रकार के अभिग्रह पाते हैं । इस तरह (४+५+१२ + १२ +५+२५+३+४ = ७०) सत्तर भेद 'करणसित्तरी' के होते हैं । उत्कृष्ट से सत्तर भेदों वाला यह संयमधर्म यानी चारित्रधर्म कहा है।
चारित्रपद के सत्तर गुण
चारित्र-संयम के गुण अनन्त हैं। उनमें सत्तर गुणों की विशेषता अति उत्तम है। उन गुणों के नाम निम्नलिखित प्रमाण हैं--
(१) प्राणातिपातविरमणरूप चारित्र । (२) मृषावादविरमणरूप चारित्र । (३) अदत्तादानविरमणरूप चारित्र । (४) मैथुनविरमणरूप चारित्र ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२३४