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में ही पांचों महाव्रत उच्चरने की परिपाटी आज भी उसी रूप में चल रही है । पाँच भरत और पाँच ऐरवत क्षेत्रों में मध्य के बावीस तीर्थंकरों के साधु-मुनिराज तथा पाँच महाविदेह क्षेत्रों में सर्व तीर्थंकरों के साधु-मुनिराज चार महाव्रत उच्चरते हैं । कारण कि उन्होंने परिग्रह की विरति में मैथुन विरति का समावेश माना है। इसलिये वे साधुमुनिराज चार महाव्रतधारी कहे जाते हैं और आद्य और अन्तिम तीर्थंकर के साधु-मुनिराज पंच महाव्रतधारी कहे जाते हैं।
सर्वविरति चारित्र के पाँच भेदों पैकी सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय इन दो चारित्रों को छठा, सातवाँ, आठवाँ और नवाँ ये चार गुणस्थानक हैं । परिहार विशुद्धि चारित्र को छठा और सातवाँ ये दो गुणस्थानक हैं । सूक्ष्म सम्पराय चारित्र को मात्र एक दसवाँ गुणस्थानक है तथा यथाख्यात चारित्र को ग्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवाँ और चौदहवाँ ये चार गुणस्थानक हैं। ग्यारहवें गुणस्थानके औपशमिक यथाख्यात चारित्र है तथा बारहवें गुणस्थानके क्षायिक यथाख्यात चारित्र है। तेरहवें गुणस्थानके सयोगी कैवलिक यथाख्यात चारित्र है तथा चौदहवें गुणस्थानके अयोगी कैवलिक यथाख्यात चारित्र है ।
इस तरह चौदह गुणस्थानकों में सामायिकादि पाँच
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२३१