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________________ है और असत्य वस्तु का असत्यज्ञान अयथार्थ है। यथार्थ ज्ञान ही सत्यज्ञान है और अयथार्थ ज्ञान सत्यज्ञान नहीं किन्तु असत्यज्ञान अर्थात् अज्ञान है । सर्वज्ञ विभु श्रीजिनेश्वर-तीर्थंकर भगवन्त द्वारा अर्थरूपे भाषित तथा श्रुतकेवली श्रीगणधर भगवन्त द्वारा गुंथित द्वादशाङ्गी रूप श्रीवागमशास्त्र में कहे हुए सभी तत्त्व सत्य, यथार्थ और वास्तविक हैं। उनका यथार्थवास्तविक बोध ही सम्यग्ज्ञान है । विश्व के जीवों को जो आत्मतत्त्व की पहिचान कराता है, आत्मा को भव के बढ़ते हुए सारे बन्धनों से बचाता है इतना ही नहीं प्रात्मा के भयंकर शत्रों राग-द्वषादि कषायों और विषयों का भी भान कराता है, आत्मा के सहभावी सदगुणों ज्ञान-दर्शनचारित्र रूप रत्नत्रयी की सच्ची ओळखाण कराता है वही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। सम्यग्ज्ञान से प्रात्मा को भक्ष्य और अभक्ष्य का, पेय और अपेय का, गम्य और अगम्य का, कृत्य और अकृत्य का वास्तविक भान होता है । 'सम्यगज्ञानमन्तरेण सम्यगदर्शनं न भवति'। सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यग्दर्शन नहीं मिलता। इसलिये आत्मा को सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व प्राप्ति के लिये सम्यग्ज्ञान की अति आवश्यकता है। द्रव्य सम्यक्त्व से श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-१६५
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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