SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है । जब तक वह न खुले तब तक धर्म रूपी नगर में प्रवेश नहीं हो सकता । श्रर्थात् सम्यग्दर्शन रूप द्वार के बिना आत्मा का कभी भी धर्म नगर में प्रवेश नहीं हो सकता है । (३) सम्यग्दर्शन को 'धर्म रूपी प्रासाद का पीठ' कहा है । धर्म रूपी प्रासाद - महल का प्रतिसुन्दर चरणतर सम्यक्त्व रूपी पीठ पाया पर निर्भर है । वह पीठ - पाया मजबूत न हो अर्थात् कच्चा हो तो उस पर धर्म रूपी प्रासाद - महल स्थिर नहीं हो सकता है । सारांश यही है कि जिस महानुभाव को प्रतिसुन्दर धर्म रूपी प्रासाद-महल स्थिर बनाना हो तो उसे सम्यग्दर्शन रूपी पीठ-पाया को अवश्यमेव मजबूत बनाना चाहिये । ( ४ ) सम्यग्दर्शन को 'धर्म रूप जगत का आधार' कहा है । जिस तरह पृथ्वी विश्व का आधार है उस तरह 'धर्म रूप जगत का आधार' सम्यग्दर्शन है । (५) सम्यग्दर्शन को 'उपशम रस का भाजन' कहा है । वह भाजन - पात्र बिना उपशम रस ढोला जाता है । अर्थात् उपशम रस के भाजन - पात्र सम्यग्दर्शन बिना अन्य कोई भी चीज वस्तु नहीं बन सकती । ( ६ ) सम्यग्दर्शन को 'गुणरत्नों का निधान' कहा है । कारण यही है कि सम्यग्दर्शन रूपी निधान बिना श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - १४६
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy