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अन्तिम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी ने श्री श्रावश्यक सूत्र' की 'नियुक्ति' में आचार्य के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि
पंचविहं प्रायार, प्रायरमारणा तहा पमाया संता । श्रायारं दंसंता, थायरिया तेरण बुच्चति ॥ ६६४ ॥
पाँच प्रकार के प्राचारों का स्वयं पालन करने वाले, प्रयत्नपूर्वक अन्य के समक्ष उनको प्रकाशित करने वाले तथा साधुओं को उन पाँच प्रकार के आचारों को दिखलाने वाले अर्थात्-ज्ञानाचारादि पंचविध प्राचारों के सम्यग् - परिपालन के लिए उत्सर्ग तथा अपवादादि विधिमार्गों के अति सूक्ष्म अर्थों को प्रयत्नपूर्वक समझाने वाले प्राचार्य कहलाते हैं ।
ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वोर्याचार इन सर्वप्रधान पञ्चाचारों का यथोचित स्वयं पालन करना और दूसरों से भी कराना यह प्राचार्य महाराज का नैतिक उत्तरदायित्व है । इन चारों के पालन और प्रचार के लिए इन्द्रियों का निग्रह, कषायों का जय, ब्रह्मचर्य की गुप्ति का पालन, पंच समिति और तीन गुप्ति रूप प्रष्टप्रवचनमाता का सेवन, आचार्य महाराज के लिए श्रवश्य विहित है । पंचाचार के पालन में ही पंचसमिति और तीन गुप्ति की पालना आ जाती है ।
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन- ८१