________________
भव्यजीवों को मोक्ष के रागी बनाने वाले, भव्यात्मानों के अन्तःकरण में मोक्षमार्ग के पथिक बनने की वृत्ति को जगाने वाले और सिद्धि की साधना में इसी वृत्ति को तल्लीन-एकतान बनाने के लिए सहायक होने वाले महान् उपकारी सिद्ध भगवन्त की आराधना द्वारा हम भी अरिहन्त बन कर सिद्ध बनें और सिद्धिस्थान में सिद्धभगवन्तों का सदा सर्वदा सान्निध्य प्राप्त करें।
[३] श्रीआचार्यपद
ॐ नमो आयरियाणं प्रतिरूपाद्याश्चतुर्दश, क्षान्त्यादिर्दशविधश्रमणधर्मः । द्वादश भावना इति, सूरिगुरणा भवन्ति त्रिंशत् ॥१॥ सूरीण दूरीकयकुग्गहाणं, नमो नमो सूरसमप्पभाणं । संदेसरणादाणसमायराणं, अखंडछत्तीसगुणायराणं ॥२॥ न तं सुहंदेइ पिया न माया, जे दिति जीवारिगह सूरिपाया। तम्हाहु ते चेव सया महेह, जं मुक्खसुक्खाइ लहुं लहेह ॥३॥
श्रीप्राचार्यपद की पहिचान श्रीनवपद में प्राचार्यपद का तीसरा स्थान है । ऐसे ही श्रीनमस्कार-महामन्त्र में भी इसका तीसरा स्थान है । श्रीअरिहन्त परमात्मा और श्रीसिद्धभगवन्त दोनों का पद देवतत्त्व में है। बाद में गुरुतत्त्व में सर्वप्रथम प्राचार्य का
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-७८