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'सिद्ध' शब्द की व्युत्पत्ति और उसका अर्थ
व्याकरण के नियमानुसार 'षिधु गत्याम्', 'षिधु संराद्ध' इत्यादि धातु से षकार का सकार हुग्रा और 'क्त' प्रत्यय ग्राने पर सिध् + क्त बना । 'क्' इत् संज्ञा तथा क् का लोप होने पर सिध्+त् रहा । 'त्' का 'घ्' और सिध् के का द् तथा सब को मिलाने पर 'सिद्ध' ऐसा रूप बनता है । कहा है कि
ध्
मातं सितं येन पुराणकर्म,
यो वा गतो निर्वृत्ति सौंधमूनि ।
ख्यातोनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो,
यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलं मे ॥
जो अनेक भवों के परिभ्रमण से बाँधे हुए पुराने कर्मों को भस्मीभूत कर चुके हैं अथवा जो मुक्ति रूपी महल के उच्च विभाग पर जा चुके हैं, या जो प्रख्यात हैं, शास्ता हैं, कृतकृत्य हैं वे सिद्ध मेरे लिये मङ्गल करने वाले हों ।
जिन्होंने अनादिकालीन संसार के भ्रमण-मूलक निखिल कर्मों का सर्वथा सर्वविनाश कर दिया है, जो मोक्ष के स्थान में पहुंच गये हैं, अब जिनको संसार में प्राने का, पुनर्जन्म लेने का और पुनः मोक्ष में जाने का प्रयोजन नहीं रहा है उन्हें ही 'सिद्ध' कहा जाता है ।
श्री सिद्धचक्र - नवपदस्वरूपदर्शन - ५९