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का समय तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध आता है। 384. वीरसेनाचार्य
षटखण्डागम पर सबसे महत्त्वपूर्ण टीका धवला है जिसके रचयिता वीरसेन हैं। इस टीका के कारण ही यह समस्त ग्रंथ धवलसिद्धांत के नाम से कहा जाने लगा। आदिपुराण के कर्ता सुप्रसिद्ध जिनसेन आचार्य इनके शिष्य थे। जिनसेन ने अपने गुरु की सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञा को बहुत सराहा है। वीरसेन ने बप्पदेवगुरु की व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका के आधार से चूर्णियों के ढंग की प्राकृत और संस्कृतिमिश्रित 72 हजार लोकप्रमाण धवला नाम की टीका लिखी। टीकाकार की लिखी हुई प्रशस्ति के अनुसार शक संवत् 738 सन् 816 में यह टीका वाटग्रामपुर में लिखकर समाप्त हुई । इस प्रशस्ति में टीकाकार ने पंचस्तूप अन्वय का विद्यागुरु एलाचार्य
और दीक्षा गुरु आर्यनन्दि का उल्लेख किया है। धवला टीका के कर्ता वीरसेन बहुश्रुत विद्वान् थे और उन्होंने दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों के विशाल साहित्य का आलोडन किया था। 385. वैदिक भाषा और प्राकृत
मध्यप्रदेश की विभाषा शौरसेनी प्राकृत का जितना गहरा संबंध जनभाषा से था, प्राच्या विभाषा से था, उतना ही निकट संबंध उसका वैदिक भाषा छान्दस् उदीच्या विभाषा एवं बाद में लौकिक संस्कृत से बन गया था। अतः उस मूल लोकभाषा में जो विशेषताएँ थी वे दाय के रूप में वैदिक भाषा और प्राकृत को समान रूप से मिली हैं। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने स्पष्ट किया है कि प्राकृत मध्यकालीन भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है। प्राकृत भाषा कोई एकाएक प्रयोग में नहीं आ गई। अपने नैसर्गिक रूप में वह वैदिक काल से पूर्व भी विद्यमान थी। वैदिक भाषा को स्वयं उस काल में प्रचलित प्राकृत बोलियों का साहित्यिक रूप माना जा सकता है। प्रथम स्तरीय प्राकृत के स्वरूप को वैदिक भाषा का अध्ययन भी आवश्यक है। यद्यपि प्रथमस्तरीय प्राकृत का साहित्य अनुपलब्ध है, तथापि महावीर युगीन स्वतीय प्राकृत की प्रवृत्तियों के प्रमाण वैदिक भाषा (छान्दस) के साहित्य में प्राप्त होते हैं। डॉ. गुणे के अनुसार प्राकृतों का अस्तित्व निश्चित
प्राकृत रत्नाकर 0 327