________________
फुल्ल
जल
एला ओह
4. ह्रस्व-दीर्घ विधान संधि
प्राकृत में दो पदों के स्व एवं दीर्घ स्वर प्रायः परस्पर में बदलते रहते हैं । इसके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। उसे अभ्यास से समझना चाहिये । यथा
देव + इंदा
पर +
इंदो
=
ह्रस्व का दीर्घ
सत्तावीसा
सत्त+वीसा दीर्घ स्वर का ह्रस्व नई + सोत्तं = नइसोत्तं, नईसोत्तं
=
फुल्लेला जलोह (जलौघः)
(ख) 5. प्रकृतिभाव संधि :
प्राकृत में संधि कार्य होने की अपेक्षा संधि-निषेध की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। परस्पर में मिलने वाले दो शब्द अपनी यथावत स्थिति में रह जाते हैं, उनमें मिलकर कोई विकार नहीं हाता, ऐसी स्थिति को प्रकृतिभाव संधि कहा जा सकता है । प्राकृत में इस प्रकार की स्थिति निम्नांकित रूपों में पाई जाती है(1) एक पद में संधि नहीं होती नई (नदी) पइ (पति) कवि (कवि) (2) एक पद में भी कहीं-कहीं विकल्प से स्वर संधि हो जाती है। यथाद्वितीय = बीअ स्थविर = थेर थ + इर चतुर्दश = चोद्दस चौदह (3) ए और ओ के आगे कोई स्वर होने पर संधि कार्य नहीं होता। यथाएगे + आया, = एगेआया अहो + अच्छरियं, = अहोअच्छरियं
च+उ+दस,
(4) दो व्यंजन लोप होने वाले शेष स्वरों में संधि नहीं होती । यथागन्ध + कुटिं = गंधउडिं रजनी + चरः = रयणी अरो इसके अपवाद भी हैं - कुम्भ + कारः = कुभआरो = कुंभारो
6. पूर्व स्वर लोप वाले मिलित शब्द
प्राकृत में दो शब्दों के स्वर जब समीप आते हैं तो उनमें संधिकार्य होने की अपेक्षा पूर्व स्वर का लोप हो जाता है और फिर दोनों शब्द मिलकर एक हो जाते हैं। यथा
=
देविंदों
णरिंदो
=
जिण
देव
+ इंद्रा = जिणिंदो
+
इड्ढि =देविड्ढि
प्राकृत रत्नाकर 201