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________________ होने से इसे भाषा कहा गया है। कथ्य भाषा होने से यह देशी कही गई है तथा परवर्ती अपभ्रंश के लिए अवहट्ठ कहा गया है, जो अपभ्रंश और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। वह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की पूर्ववर्ती अवस्था है। 245. प्राकृत एवं जैनागम विभाग प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी के श्रमणविद्या संकाय में एक स्वतंत्र विभाग है । 1958 में इस विश्वविद्यालय की स्थापना के समय से ही विश्वविद्यालय ने प्राकृत का शिक्षण एवं परीक्षा प्रारम्भ की। प्राकृत के स्वतंत्र अध्यापक के अभाव में जैनदर्शन के साथ इसका सहयोजन किया गया। उत्तरप्रदेश विश्वविद्यालय अधिनियमों के अनुसार 26 दिसम्बर 1978 से प्रवृत्त परिनियमावली के अनुरूप विश्वविद्यालय के विभागों का संकायों के रूप में जब पुनर्गठन हुआ तो उसके अन्तर्गत प्राकृत एवं जैनागम विभाग को स्वतन्त्र विभाग का रूप प्रदान किया गया। 21 जुलाई 1979 को डॉ. गोकुलचन्द जैन, द्वारा कार्यभार ग्रहण करने के साथ 1979-80 शिक्षा सत्र से प्राकृत एवं जैनागम विभाग का विधिवत् शुभारम्भ हुआ । प्राकृत के शास्त्री, आचार्य और स्नातकोत्तर प्रमाण-पत्रीय शिक्षण की व्याख्या विश्वविद्यालीय विभाग में हैं। मध्यमा स्तर का शिक्षण सम्बद्ध विद्यालयों-महाविद्यालयों में होता है। आचार्य स्तर पर प्राकृत की विभिन्न शाखाओं के चार वर्ग बनाये गये हैं- 1. अर्धमागधी प्राकृतागम, 2. शौरसेनी प्राकृतागम, 3. महाराष्ट्री प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य | 4. प्राकृतागम एवं पाली त्रिपिटक। विश्वविद्यालय में प्राकृत एवं जैनविद्या में अनुसन्धानोपाधि की भी व्यवस्था है । 246. प्राकृत एवं संस्कृत संस्कृत और प्राकृत भाषा के बीच किसी प्रकार कार्य-कारण या जन्य-जनक भाव नहीं है। दोनों के विकास का स्रोत एक है। डॉ. एलफेड, डॉ. पिशॅल, डॉ. पी. डी. गुणे आदि विद्वान् भी प्राकृत भाषा के स्रोत के रूप में एक प्राचीन लोकभाषा को स्वीकार करते हैं, जिससे छान्दस् - भाषा (संस्कृत) का भी विकास हुआ है । प्राकृत रत्नाकर 0191
SR No.002287
Book TitlePrakrit Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan
Publication Year2012
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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