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त्रिलोकप्रज्ञप्ति शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित करणानुयोग का प्राचीनतम ग्रन्थ है। धवला टीका में इस ग्रन्थ के अनेक उदाहरण उद्धृत हुए हैं। यह ग्रन्थ 8,000 श्लोकप्रमाण है। ग्रन्थ के अन्त में बताया गया है - अठुसहस्सप्रमाणं तिलोयपण्णतिणामाए अर्थात् आठ हजार श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ की रचना की गई है। इसके कर्ता कषायप्राभृत पर चूर्णिसूत्र के रचयिता आचार्य यति वृषभ हैं। इस ग्रन्थ में दृष्टिवाद, मूलाचार, परिकर्म, लोकविभाग आदि प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं। इस ग्रन्थ में त्रिलोक की रचना के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। तीनों लोक के स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युग-परिवर्तन आदि विषयों का विस्तार से विवेचन हुआ है। यह ग्रन्थ १ अधिकारों में विभक्त है। 1.सामान्यलोक 2. नरकलोक 3.भवनवासीलोक 4. मनुष्यलोक 5.तिर्यक्लोक 6.व्यन्तरलोक 7. ज्योतिर्लोक 8. देवलोक 9.सिद्धलोक। ___ इन अधिकारों में मुख्यरूप से जैन भूगोल एवं खगोल का विस्तार से प्रतिपादन हुआ है। दृष्टिवाद के आधार पर त्रिलोक की मोटाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई का निरूपण किया गया है। नरकलोक, भवनवासी देवों के स्वरूप, जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, लवणसमुद्र, तीर्थकरों के जन्मस्थल, व्यन्तरदेवों, ज्योतिषीदेवों एवं वैमानिकदेवों की स्थिति, स्थान, परिवार, सुखभोग एवं सिद्धों के क्षेत्र, संख्या, अवगाहना आदि का विस्तार से विवेचन प्रस्तुत हुआ है। इस ग्रन्थ का विषय सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, धवला, जयधवला आदि ग्रन्थों से मिलता-जुलता है। प्रसंगानुसार जैन सिद्धान्त, पुराण एवं इतिहास के विभिन्न तथ्यों पर भी चर्चा की गई है। प्राचीन गणित के अध्ययन के लिए भी यह ग्रन्थ उपयोगी है।
ग्रन्थ में आठ हजार गाथाओं का निर्देश किया है परन्तु पूर्व प्रकाशित जीवराज ग्रन्थमाला के संस्करण में पाँच हजार छ: सौ सत्तर गाथाओं की सूचना ही दी गई हैं, उसमें 5666 गाथाएँ ही मुद्रित हैं। इसमें पद्य के अतिरिक्त सभी अधिकारों में गद्य का भी प्रयोग हुआ है। गद्य और पद्य दोनों ही शौरसेनी प्राकृत
1320 प्राकृत रत्नाकर