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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 83 बाकी सर्व सचित्त वस्तु उसमें भी विशेषकर आम आदिक अचित्त हो जाय तो भी उसमें प्रायः मीठास स्वाद आदि रहता है, परन्तु नागरवेल के पान में तो बिलकुल नहीं रहता इससे वे सचित्त ही प्रायः खाते हैं। सचित्त नागरवेल के पान में जल की आर्द्रता आदि नित्य रहने से नीली (लीलफूल) तथा कुंथुआ आदि जीवों की उत्पत्ति होने से बहुत विराधना होती है, इसीलिए पापभीरू पुरुष रात्रि के समय तो उस (पान) का उपयोग करते ही नहीं और जो व्यवहार में लाते हैं, वे भी रात्रि में खाने के पान दिन में पूर्ण रूप से देखकर रखे हुए ही वापरते हैं। ब्रह्मचारी (चतुर्थव्रतधारी) श्रावक को तो कामोत्तेजक होने से नागरवेल के पान अवश्य छोड़ने चाहिए। ये (नागरवेल के पान) प्रत्येक वनस्पति हैं अवश्य, पर प्रत्येक पान, फूल, फल इत्यादिक हरएक वनस्पति में उसकी निश्रा से रहे हुए असंख्य जीव की विराधना होने का संभव है। कहा है कि जं भणि पज्जत्तगनिस्साए वुक्कमंतऽपज्जत्ता। जत्थेगो पज्जत्तो, तत्थ असंखा अपज्जत्ता ॥१॥ - पर्याप्तजीव की निश्रा से अपर्याप्त जीवों की उत्पत्ति होती है। जहां एक पर्याप्त जीव, वहां असंख्य अपर्याप्त जीव जानो। बादर एकेन्द्रियों के विषय में यह कहा। सूक्ष्म में तो जहां एक अपर्याप्त, वहां उसकी निश्रा से असंख्य पर्याप्त होते हैं। यह बात आचारांग सूत्र वृत्ति आदि ग्रंथों में कही है। इस प्रकार एक भी पत्र, फल इत्यादिक में असंख्याता जीव की विराधना होती है। जल लवण इत्यादि वस्तु असंख्यात जीवरूप है। पूर्वाचार्यों का ऐसा वचन है कि, तीर्थंकरों ने एक जलबिन्दु में जो जीव कहे हैं, वे जीव सरसों के बराबर हो जायें तो जंबूद्वीप में न समावें। हरे आँवले के समान पृथ्वीकायपिंड में जो जीव होते हैं वे कबूतर के बराबर हो जाये तो जंबद्वीप में न समायें। सर्व सचित्त का त्याग करने के ऊपर अंबड परिव्राजक के सातसो शिष्यों का दृष्टान्त है। श्रावक धर्म अंगीकारकर अचित्त तथा किसीके न दिये हुए अन्न जल का भोग नहीं करनेवाले वे (अंबड के शिष्य) एक समय एक वन में से दूसरे वन में फिरते ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त तृषातुर हो गंगा नदी के किनारे आये। वहां 'गंगा नदी का जल अचित्त तथा अदत्त (किसीका न दिया हुआ) होने से, चाहे जो हो हम ग्रहण नहीं करेंगे' ऐसे दृढनिश्चय से अनशनकर वे सब ही पांचवें ब्रह्मदेवलोक में इन्द्र समान देवता हुए। इस प्रकार सचित्त वस्तु के त्याग में यत्न रखना चाहिए। सचित्तादि चौदह नियम : जिसने पूर्व में चौदह नियम लिये हों, उन्होंने उन नियमों में प्रतिदिन संक्षेप करना और अन्य भी नये नियम यथाशक्ति ग्रहण करना। चौदह नियम इस प्रकार है-१ सचित्त, २ द्रव्य, ३ विगई, ४ उपानह (जूते),५ तांबूल (खाने का पान आदि),६ वस्त्र,७ फूल (खुशबो), ८ वाहन, ९ शयन (खाट आदि), १० विलेपन, ११ ब्रह्मचर्य, १२ १. यह कथन उस समय के व्रतधारी राजा-महाराजाओं को दृष्टि में रखकर किया हुआ है ऐसा लगता है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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