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________________ 74 श्राद्धविधि प्रकरणम् में रखी हुई वस्तु नियम से अधिक लेने में आवे तो भी नियम भंग नहीं होता, परन्तु मात्र अतिचार होता है। समझ बुझकर यदि लेशमात्र भी नियम से अधिक ग्रहण करे तो नियमभंग होता है। कोई समय पापकर्म वश जानते हुए नियमभंग हो जाय तो भी धर्मार्थी जीवों को उस नियम का पालन अवश्य करना चाहिए। पड़वा, पंचमी और चौदश इत्यादि पर्वतिथि को जिसने उपवास करने का नियम लिया है, उसको किसी समय तपस्या की तिथि के दिन अन्यतिथि की भ्रांति आदि होने से, जो सचित्त जलपान, ताम्बूल भक्षण, स्वल्प भोजन आदि हो जाय और पश्चात् तपस्या का दिन ज्ञात हो तो मुख में ग्रास हो उसे न निगलते निकालकर प्रासुक जल से मुखशुद्धि करना और तपस्या की रीत्यानुसार रहना। जो कदाचित् भ्रांतिवश तपस्या के दिन पूरापूरा भोजन कर लिया जाय तो दंड के निमित्त दूसरे दिन तपस्या करना और समाप्ति के अवसर पर वह तप वर्द्धमान जितने दिन कम हो गये हों, उतने की वृद्धि करके करना। ऐसा करने से अतिचार मात्र लगता है परन्तु नियम भंग नहीं होता। 'आज तपस्या का दिन है' यह जान लेने पर यदि एक दाना भी निगल जावे, तो नियमभंग होने से नरकगति का कारण होता है। 'आज तपस्या का दिन है कि नही? अथवा यह वस्तु लेनी है कि नहीं?' ऐसा मन में संशय आवे, और वह (वस्तु) ले तो नियमभंगादि दोष लगता है। बहुत ही रोगी, भूतपिशाचादिकका उपद्रव होने से विवशता तथा सर्पदंशादिक से मर्छित होने से तप न हो सके तो भी चौथे आगार (सव्वसमाहिवत्तियागारेणं) का उच्चारण किया है अतः नियम का भंग नहीं होता। इस प्रकार सर्व नियमों का विचार करना चाहिए। कहा है कि वयभंगे गुरुदोसो थोवस्सवि पालणा गुणकरी । गुरू लाघवं च नेअं, धम्ममि अओ अ आगारा ।।१।। नियम भंग होने से बड़ा दोष लगता है इसलिए थोड़ा ही नियम लेकर उसका यथोचित्त पालन करना उत्तम है। धर्म के सम्बन्ध में तारतम्य अवश्य जानना चाहिए। इसीलिए (पच्चक्खाण में) आगार रखे हैं। यद्यपि कमलश्रेष्ठि ने 'पड़ोस में रहनेवाले कुम्हार के सिर की टाल (गंज) देखे बिना मैं भोजन नहीं करूंगा।' ऐसा नियम कौतुकवश लिया था तथापि उससे उसे अर्ध निधान की प्राप्ति हुई, और उसीसे नियम सफल हुआ। तो पुण्य के निमित्त जो नियम लिया जाये उसका कितना फल हो? कहा है कि-पुण्य के इच्छुक व्यक्ति को कुछ भी नियम अवश्य ग्रहण करना चाहिए, वह (नियम) अल्पमात्र हो तो भी कमलश्रेष्ठि की तरह बहुत लाभदायक होता है। परिग्रहपरिमाणव्रत में दृढ़ता रखने पर रत्नसार श्रेष्ठि का दृष्टान्त आगे वर्णन किया जायेगा। नियम इस प्रकार लेना चाहिएव्रत लेने का स्वरूप : प्रथम मिथ्यात्व का त्याग कर देना। पश्चात् नित्य शक्ति के अनुसार दिन में तीन, दो अथवा एक बार भगवान् की पूजा, देवदर्शन, संपूर्ण देववंदन अथवा चैत्यवन्दन
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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