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श्राद्धविधि प्रकरणम् में भावश्रावक कहलाता है। यही भावश्रावक शुभकर्म के योग से शीघ्र भावसाधुत्व को प्राप्त करता है। ऐसा धर्मरत्नशास्त्र में कहा है।
उपरोक्त रीति से शुभभावना करनेवाला, पूर्वोक्त दिनकृत्य में तत्पर अर्थात् 'यह निग्रंथ प्रवचन ही अर्थरूप तथा परमार्थरूप है, शेष सब अनर्थ है, ऐसी सिद्धान्त में कही हुई रीति के अनुसार समस्तकार्यों में पूर्ण प्रयत्न से, यतना से ही प्रवृत्ति करनेवाला, किसी जगह भी जिसका चित्त प्रतिबंध को प्राप्त नहीं हुआ ऐसा और अनुक्रम से मोह को जीतने में निपुण पुरुष अपने पुत्र भतीजे आदि गृहभार उठाने को समर्थ हों तब तक अथवा अन्य किसी कारणवश कुछ समय गृहवास में बिताकर उचित समय पर अपनी आत्मा को चारित्र मार्ग में योग्य बनाकर पश्चात् जिनमंदिर में अट्ठाइ उत्सव, चतुर्विध संघ की पूजा, अनाथ आदि लोगों को यथाशक्ति अनुकम्पादान और मित्र स्वजन आदि से क्षमापना इत्यादिक करके सुदर्शन श्रेष्ठी आदि की तरह विधि पूर्वक चारित्र ग्रहण करे। कहा है कि कोई पुरुष सर्वथा रत्नमय जिनमंदिरों से समग्र पृथ्वी को अलंकृत करे, उस पुण्य से भी चारित्र की ऋद्धि अधिक है। वैसे ही पापकर्म करने की पीड़ा नहीं, खराब स्त्री, पुत्र तथा स्वामी इनके दुर्वचन सुनने से होनेवाला दुःख नहीं, राजा आदि को प्रणाम करना नहीं, अन्न, वस्त्र, धन, स्थान आदि की चिन्ता करनी नहीं, ज्ञान की प्राप्ति हो, लोक द्वारा पूजा जाना, उपशम सुख में रक्त रहना और परलोक में मोक्ष आदि की प्राप्ति। चारित्र में इतने गुण विद्यमान हैं। इसलिए हे बुद्धिशाली पुरुषों! तुम उक्त चारित्ररत्न को ग्रहण करने का प्रयत्न करो। पन्द्रहवां द्वार-आरंभ समारंभ का त्याग :
यदि किसी कारणवश अथवा पालने की शक्ति आदि न होने से जो श्रावक चारित्र ग्रहण कर न सके, तो आरंभ आदि वर्जे याने दीक्षा ग्रहण न की जा सके तो आरंभ का त्याग करे। उसमें पुत्र आदि कोई भी घर का सर्व कार्यभार सम्भाल लेने योग्य हो तो सर्व आरंभ का त्याग करना, और वैसा न हो तो सचित्त वस्तुका आहारादि निर्वाह के अनुसार आरंभ त्याग करे। बन सके तो अपने लिये अन्न का पाक आदि भी
न करे। कहा है कि जिसके लिये अन्न का पाक (रसोई) बने उसीके लिए आरंभ होता . है। आरंभ में जीवहिंसा है, और जीवहिंसा से दुर्गति होती है। सोलहवां द्वार-ब्रह्मचर्य पालन :
श्रावक को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
जैसे पेथड श्रेष्ठी ने बत्तीसवें वर्ष में ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया और बाद में वह भीमसोनी की मढ़ी (मठ) में गया। ब्रह्मचर्य आदि का फल अर्थदीपिका में देखो। सत्रहवां द्वार-श्रावक की पडिमा :
. श्रावक प्रतिमाआदि तपस्या करे, आदि शब्द से संसार तारण इत्यादि कठिन तपस्या समझनी चाहिए। उसमें मासिकी आदि ११ प्रतिमाएं कही हैं। यथादसण १ वय र सामाइअ ३, पोसह ४, पडिमा ५ अर्बभ६ सच्चित्ते ७