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________________ 380 श्राद्धविधि प्रकरणम् की प्रतिमा करना, १८ तथा अन्तमें आराधना करना ।।१६।। विस्तारार्थः बारहवां-तेरहवां द्वार-ससम्यक्त्व व्रत ग्रहण : - आजन्म याने बाल्यावस्था से लेकर यावज्जीव तक समकित और अणुव्रत आदि का यथाशक्ति पालन करना। इसका वर्णन श्रीरत्नशेखरसूरिजी की विरचित अर्थदीपिका में देखो। चौदवां द्वार-दीक्षा ग्रहण : दीक्षा ग्रहण याने अवसर आने पर चारित्र अंगीकार करना। इसका भावार्थ यह है कि-श्रावक बाल्यावस्था में दीक्षा न ले सके तो अपने को वंचित हुआ समझे। कहा है कि जिसने सारे लोक को दुःख न दिया, कामदेव को जीत कर कुमार अवस्था में ही दीक्षा ली, वे बालमुनिराज धन्य हैं। अपने कर्मवश प्राप्त हुई गृहस्थावस्था को, एकाग्रचित्त से अहर्निशि सर्वविरति के परिणाम रखकर पानी का बेड़ा सिर पर धारण करनेवाली सामान्य स्त्री की तरह पालना। कहा है कि एकाग्रचित्तवाला योगी अनेक कर्म करे तो भी पानी लानेवाली स्त्री की तरह उसके दोष से लिप्त नहीं होता। जैसे परपुरुष में आसक्त हुई स्त्री ऊपर से पति की मरजी रखती है, वैसे ही तत्त्वज्ञान में तल्लीन हुआ योगी संसार का अनुसरण करता है। जैसे शुद्ध वेश्या मन में प्रीति न रखते 'आज अथवा कल इसको छोड़ दूंगी' ऐसा भाव रखकर जारपुरुष का सेवन करती है, अथवा जिसका पति मुसाफिरी करने गया है, ऐसी कुलीन स्त्री प्रेमरंग में रहकर पति के गुणों का स्मरण करती हुई भोजन-पान आदि से शरीर का निर्वाह करती है, वैसे सुश्रावक भी सर्वविरति के परिणाम मन में रखकर अपने को अधन्य मानता हुआ गृहस्थाश्रम पाले। जिनलोगों ने प्रसरते मोह को रोककर दीक्षा ली, वे सत्पुरुष धन्य हैं, और यह पृथ्वीमंडल उन्हींसे पवित्र हुआ है। भावश्रावक : भावश्रावक के लक्षण भी इस प्रकार कहे हैं–१ स्त्री के वश न होना, २ इन्द्रियों को वश में रखना,३ धन को अनर्थका हेतु समझना, ४ संसार को असार समझना, ५ विषय की अभिलाषा न रखना, ६ आरम्भ का त्याग करना, ७ गृहवास को बन्धन समान समझना, ८ आजन्म समकित का पालन करना, ९ साधारण मनुष्य जैसे भेड़ प्रवाह से चलते हैं, ऐसा चलता है ऐसा विचारना, १० सब जगह आगम के अनुसार वर्तन करना, ११ यथाशक्ति दानादि चतुर्विध धर्म का आचरण करना, १२ धर्मकार्य करते कोई अज्ञ मनुष्य हंसी करे, तो उसकी शर्म न रखना, १३ गृहकृत्य राग द्वेष न रखते हुए करना, १४ मध्यस्थपना रखना, १५ धनादिक हो तो भी उसीमें लिप्त होकर न रहना, १६ स्त्री के अतीव आग्रह पर कामोपभोग सेवन करना, १७ वेश्या समान गृहवास में रहना। यह सत्रह पद भावश्रावक का लक्षण है। यह इसका भाव संक्षेप जानना। अब इसकी व्याख्या करते हैं।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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