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________________ 373 श्राद्धविधि प्रकरणम् अवसर आया, तब रथ में बैठकर युद्ध करना ऐसा निश्चित होते हुए भी राजा चंडप्रद्योत अनिलवेग हाथी पर बैठकर आया। जिससे उसके सिर प्रतिज्ञाभंग करने का दोष पड़ा। युद्ध में शस्त्र द्वारा हाथी के पैर विंध जाने से वह गिर पड़ा, तब राजा उदायन ने चंडप्रद्योत को बंदीकर उसके कपाल पर 'मेरी दासी का पति' ऐसी छाप लगायी। पश्चात् वह चंडप्रद्योत सहित प्रतिमा लेने के लिए विदिशानगरी गया। प्रतिमा का उद्धार करने के लिए बहुत प्रयत्न किया तथापि वह स्थानक से किंचित् मात्र भी न डिगी। और अधिष्ठात्री देवी कहने लगी कि 'वीतभयपट्ठण में धूल की वृष्टि होगी, इसीलिए मैं न आऊंगी।' यह सुनकर उदायन राजा वापिस आया। मार्ग में चातुर्मास (वर्षाकाल) आया, तब एक जगह पड़ाव करके सेना के साथ रहा। संवत्सरी पर्व के दिन राजा ने उपवास किया। रसोइये ने चंडप्रद्योत को पूछा कि, 'आज हमारे महाराजा को पर्युषण का उपवास है इसलिए आपके वास्ते क्या रसोई करूं?' चंडप्रद्योत के मन में 'यह कदाचित् अन्न में मुझे विष देगा' यह भय उत्पन्न हुआ, जिससे उसने कहा कि, 'तूने ठीक याद कराया। मेरे भी उपवास है। मेरे मातापिता श्रावक थे।' यह ज्ञात होने पर उदायन ने कहा कि, 'इसका श्रावकपना तो जान लिया! तथापि यह ऐसा कहता है, तो वह नाममात्र से भी मेरा साधर्मिक हो गया, इसलिए वह बंधन में हो तब तक मेरा संवत्सरी प्रतिक्रमण किस प्रकार शुद्ध हो सकता है? यह कहकर उसने चंडप्रद्योतको बंधनमुक्त कर दिया, खमाया और कपाल पर लेख छिपाने के लिए रत्नमणिका पट्ट बांधकर उसे अवंती देश दिया। उदायन राजा की धार्मिकता तथा सन्तोष आदि की जितनी प्रशंसा की जाय, उतनी ही थोड़ी है।अस्तु, चातुर्मास बीत जाने पर वीतभयपट्टण को आया। सेना के स्थान में आये हुए वणिक्लोगों के निवास से दशपुर नामक एक नवीन नगर बस गया। वह राजा उदायन ने जीवंतस्वामी की पूजा के लिए अर्पण किया। इसी तरह विदिशापुरीको भायलस्वामीका नामदे,वह तथा अन्य बारह हजार ग्राम जीवंतस्वामी की सेवा में अर्पण किये। प्रभावती के जीव देवता के वचन से राजा कपिलकेवली प्रतिष्ठित प्रतिमा की नित्य पूजा किया करता था। एक समय पक्खीपौषध होने से उसने रात्रिजागरण किया, तब उसे एकदम चारित्र लेने के दृढ़ परिणाम उत्पन्न हुए, प्रातःकाल होने पर उसने उक्त प्रतिमा की पूजा के लिए बहुत से ग्राम, नगर, पुर आदि दिये। 'राज्य अन्त में नरक प्राप्त करानेवाला है, इसलिए वह प्रभावती के पुत्र अभीचि को किस प्रकार दूं?' इत्यादि विचार मन में आने से उसने केशि नामक अपने भानजे को राज्य दिया, और आपने श्रीवीरभगवान के पास चारित्र ग्रहण किया। उस समय केशी राजा ने दीक्षा महोत्सव किया। एक समय अकाल में अपथ्याहार के सेवन से राजर्षि उदायन के शरीर में महाव्याधि उत्पन्न हुई। 'शरीर धर्म का मुख्य साधन है।' यह सोचकर वैद्य ने भक्षण करने को बताये हुए दही का योग हो, इस हेतु से ग्वालों के ग्राम में मूकाम करते हुए वे
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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