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________________ 354 श्राद्धविधि प्रकरणम् हुआ हो तो वह महाविदेह क्षेत्र में जो अरिहंत भगवान् को पूछकर प्रायश्चित्त देता है। यह भी न बने तो अरिहंत की प्रतिमा के सन्मुख आलोचना करके स्वयं ही प्रायश्चित्त अंगीकार करे। अरिहंतप्रतिमा का भी योग न हो तो पूर्व अथवा उत्तर दिशा को मुख करके अरिहंतों तथा सिद्धों के समक्ष आलोवे, आलोये बिना कभी न रहे, कारण कि, शल्य सहित जीव आराधक नहीं कहलाता है। अग्गीओ नवि जाणइ, सोहिं चरणस्स देइ ऊणहि। तो अप्पाणं आलोअगं च पाडेइ संसारे ।।७।। अर्थः स्वयं गीतार्थ न होने से चरण की शुद्धि को न जाने और लगे हुए पाप से कम या ज्यादा आलोचना दे और उससे तो वह पुरुष अपने आपको तथा आलोचना लेनेवाले को भी संसार में पटकता है। जह बालो जपतो, कज्जमकज्जं च उज्जु भणई। तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को अ॥८॥ अर्थः जैसे बालक बोलता हो, तब वह कार्य अथवा अकार्य जो हो सो सरलता से कहता है, वैसे आलोचना लेनेवाले ने माया अथवा मद न रखते अपना पाप साफ-साफ कहकर आलोयण करनी। मायाइदोसरहिओ, पइसमयं वडमाणसंवेगो। आलोइज्ज अकज्जं, न पुणो काहंति निच्छयओ ।।९।। अर्थः माया मद इत्यादि दोष न रखकर समय-समय पर संवेगभावना की वृद्धि कर जिस अकार्य की आलोचना करे वह अकार्य फिर कदापि न करे ऐसा निश्चय करे। लज्जाइगारवेणं, बहुसुअमरण वावि दुच्चरि। जो न कहेइ गुरूणं, न हु सो आराहओ भणिओ ॥१०॥ अर्थः जो पुरुष शर्म आदि से, रसादिगारव में लिपटा रहने से अर्थात् तपस्या न करने की इच्छा आदि से अथवा मैं बहुश्रुत हूं ऐसे अहंकार से, अपमान के भय से अथवा आलोचना बहुत आयेगी इस भय से गुरु के पास अपने दोष कहकर आलोचना न करे वह कभी भी आराधक नहीं कहलाता। संवेगपरं चित्तं, काऊणं तेहिं तेहिं सुत्तेहिं। सल्लाणुद्धरणविवागदंसगाईहिं आलोए ।।११।। अर्थः संवेग उत्पन्न करनेवाले आगम वचनों का सूत्रों का विचारकर तथा शल्य का उद्धार न करने के दुष्परिणाम कहनेवाले सूत्र ऊपर ध्यान देकर अपना चित्त संवेग युक्त करना और आलोचना लेना। अब आलोचना लेनेवाले के दश दोषों का वर्णन करते हैं
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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