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________________ 352 श्राद्धविधि प्रकरणम् अर्थ : आलोचना देनेवाले आचार्य गीतार्थ अर्थात् निशीथ आदि सूत्रार्थ के ज्ञाता, कृतयोगी अर्थात् मन, वचन, काया के शुभ योग रखनेवाले अथवा त्रिविध तपस्या करनेवाले, अर्थात् विविध प्रकार के शुभध्यान से तथा विशेषतपस्या से अपने जीव तथा शरीर को संस्कार करनेवाले, चारित्री अर्थात् निरतिचार चारित्र पालनेवाले, ग्राहणाकुशल अर्थात् आलोचना लेनेवाले से बहुत युक्ति से विविध प्रकार के प्रायश्चित्त तथा तप आदि स्वीकार कराने में कुशल, खेदज्ञ अर्थात् आलोचना के लिए दी हुई तपस्या आदि में कितना श्रम पड़ता है? उसके ज्ञाता अर्थात् आलोचना विधि का जिन्होंने बहुत ही अभ्यास से ज्ञान प्राप्त किया है, अविषादी अर्थात् आलोचना लेनेवाले का महान् दोष सुनने में आवे तो भी विषाद न करनेवाले, आलोचना लेनेवाले को भिन्न-भिन्न दृष्टान्त कहकर वैराग्य के वचन से उत्साह देनेवाले हो ऐसा शास्त्र में कहा है। अर्थः आयारवमाहारवं, ववहारुवीलए पकुव्वी अ अपरिस्सावी निज्जव, अवायदंसी गुरू भणिओ ॥ ४ ॥ १ आचारवान् याने ज्ञानादि पांच आचार का पालन करनेवाले, २ आधारवान् याने आलोये हुए दोष का यथावत् मन में स्मरण करनेवाले, ३ व्यवहारवान् याने पांच प्रकार का व्यवहार जानकर प्रायश्चित्त देने में सम्यग् रीति से वर्त्ताव करनेवाले, पांच प्रकार का व्यवहार इस प्रकार है- (१) प्रथम आगम व्यवहार यह केवली, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नवपूर्वी का जानना । (२) श्रुतव्यवहार यह आठ से अर्धपूर्वी तक के पूर्वधर, एकादश अंग के धारक तथा निशीथादिक सूत्र के ज्ञाता आदि सर्वश्रुतज्ञानियों का जानना । (३) आज्ञा व्यवहार यह कि गीतार्थ दो आचार्य दूर-दूर देशों में रहने से एक दूसरे को मिल न सकें तो वे चुपचाप जो परस्पर आलोचना प्रायश्चित्त देते हैं वह जानना । (४) धारणा व्यवहार याने अपने गुरु ने जिस दोष का जो प्रायश्चित्त दिया हो वह ध्यान में रखकर उसीके अनुसार दूसरों को देना। (५) जीतव्यवहार याने सिद्धांत में जिस दोष का जितना प्रायश्चित्त कहा हो, उससे अधिक अथवा कम प्रायश्चित्त परम्परा का अनुसरण करके देना । ४ अपव्रीडक अर्थात् आलोचना लेनेवाला शर्म से यथावत् न कहता होवे तो उसको वैराग्य उत्पन्न करनेवाले दृष्टान्त ऐसी युक्ति से कहे कि, जिसे सुनते ही वह व्यक्ति शर्म का त्यागकर अच्छी प्रकार से आलोये ऐसे ५ प्रकुर्वी अर्थात् आलोचना लेनेवाले की सम्यग् रीति से शुद्धि करनेवाले। ६ अपरिस्रावी अर्थात् आलोचना दी हो तो दूसरे को न कहनेवाले । १ निर्यापक अर्थात् जो जितना प्रायश्चित्त ले सके उसे उतना ही देनेवाले। ८ अपायदर्शी अर्थात् सम्यग् आलोचना और
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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