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________________ 350 श्राद्धविधि प्रकरणम् चाहिए। जिसमें श्रीगुरु महाराज का प्रवेशोत्सव पूर्णतः विशेष सजधज से चतुर्विध संघ सहित सामने जाकर तथा श्री गुरु महाराज व संघ का सत्कार करके यथाशक्ति करना। कहा है कि श्री गुरु महाराज के सन्मुख गमन, वन्दन, नमस्कार और सुखशान्ति की पृछना करने से चिरकाल संचित पाप क्षणभर में शिथिल हो जाता है। पेथड श्रेष्ठि ने तपा० श्री धर्मघोषसरिजी के प्रवेशोत्सव में बहोत्तर हजार टंक का व्यय किया था। 'संवेगीसाधुओं का प्रवेशोत्सव करना अनुचित है।' ऐसी कुकल्पना कदापि नहि करनी चाहिए। कारण कि, सिद्धान्त में सामने जाकर उनका सत्कार करने का प्रतिपादन किया हुआ है। यही बात साधु की प्रतिमा के अधिकार में श्रीव्यवहारभाष्य में कही है। यथा तीरिअ उन्मामनिओ-अ दरिसणं सन्नि साहुमप्पाहे। दंडिअ भोइअ असई, सावग संघो व सक्कारं ॥१॥ अर्थः प्रतिमा पूर्ण हो जाय तब प्रतिमावाहक साधु जहां भिक्षकों का संचार हो ऐसे ग्राम में अपने को प्रकट करे, और श्रावक अथवा साधु को संदेशा कहलाये। पश्चात् उक्त ग्राम का राजा, अधिकारी अथवा वे न हो तो श्रावक, श्राविकाओं का और वे न हो तो साधु-साध्वियों का समुदाय उक्त प्रतिमावाहक साधु का सत्कार करे। इस गाथा का यह अभिप्राय है कि, 'प्रतिमा पूर्ण होने पर समीप के जिस ग्राम में बहुत से भिक्षुक विचरते हो वहां आकर अपने को प्रकट करे, और इस दशा में जो श्रावक अथवा साधु देखने में आवे उनको संदेशा कहलाये कि, 'मेरी प्रतिमा पूर्ण हो गयी है इससे मैं आया हूं।' पश्चात् वहां जो आचार्य हो वह राजा को यह बात विदित करावे कि, 'अमुक महातपस्वी साधु ने अपनी तपस्या यथाविधि पूर्ण की है। इसलिए बहुत सत्कार के साथ उसे गच्छ में प्रवेश कराना है। पश्चात राजा अथवा गांव का अधिकारी अथवा ये भी न हो तो श्रावक लोग और वे भी न हो तो साधु-साध्वी आदि श्रीसंघ प्रतिमावाहक साधु का यथाशक्ति सत्कार करे। ऊपर चन्दुआ बांधना, मंगलवाद्य बजाना, सुगंधित वासक्षेप करना इत्यादिक सत्कार कहलाता है। ऐसा सत्कार करने में बहुत गुण हैं। यथाउब्मावणा पवयणे, सद्धाजणणं तहेव बहुमाणो। ओहावणा कुतित्थे, जीअंतह तित्थवुड्डीअ ॥१॥ अर्थः प्रवेश के अवसर पर सत्कार करने से जैनशासन की बड़ी दीप्ति होती है, अन्य साधुओं को श्रद्धा उत्पन्न होती है, कि, जिससे ऐसी शासन की उन्नति होती है, वह सत्कृत्य हम भी ऐसे ही करेंगे। वैसे ही श्रावक, श्राविकाओं की तथा दूसरों की भी जिनशासन पर बहुमान बुद्धि उत्पन्न होती है, कि जिसमें ऐसे महान् तपस्वी होते हैं, वह जिनशासन महाप्रतापी
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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