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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 345 ऊपर स्थित ध्वजा, छत्र, चामर इत्यादि वस्तुओं से देदीप्यमान सुवर्णमय रथ महान ऋद्धि के साथ निकलता था, उस समय हर्षसे नगरवासी लोग एकत्र होकर मंगलकारी जय ध्वनि करते थे। श्रावक स्नात्र तथा चन्दन का विलेपन करके सुगंधित पुष्पों से पूजित श्रीपार्श्वजिन की प्रतिमा को कुमारपाल के बंधवाये हुए मंदिर के संमुख खड़े हुए रथ में बड़ी ही ऋद्धि से स्थापन करते थे। वाजिंत्र के शब्द से जगत्को पूर्ण करनेवाला और हर्षपूर्वक मंगलगीत गानेवाली सुन्दरस्त्रियों के तथा सामन्त और मंत्रियों के मंडल के साथ वह रथ राजमहल के आगे जाता, तब राजा रथ में पधराई हुई प्रतिमा की पट्टवस्त्र, सुवर्णमय आभूषण इत्यादि वस्तुओं से स्वयं पूजा करता था और विविध प्रकार के नाटक, गायन आदि कराता था। पश्चात् वह रथ वहां एक रात्रि रहकर सिंह द्वार के बाहर निकलता और फहराती हुई ध्वजाओं से मानो नृत्य ही कर रहा हो ऐसे पटमंडप में आता। प्रातःकाल में राजा वहां आकर रथ में बिराजमान जिन-प्रतिमा की पूजा करता और चतुर्विध संघ के समक्ष स्वयं आरती उतारता था। पश्चात हाथी जोता हुआ रथ स्थान-स्थान में बंधवाये हुए बहुत से पटमंडपों में रहता हुआ नगर में फिरता था। इत्यादि... तीर्थयात्रा के स्वरूप का वर्णन : श्रीशजूंजय, गिरनार आदि तीर्थ हैं। इसी प्रकार तीर्थंकरों की जन्म, दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण और विहार की भूमियां भी अनेको भव्यजीवों को शुभभाव उत्पन्न करती हैं और भवसागर से पार करती हैं, अतएव वे भूमियां भी तीर्थ कहलाती हैं। इन तीर्थों में सम्यक्त्वशुद्धि के हेतु गमन करना, वही तीर्थयात्रा कहलाती है। उसकी विधि इस प्रकार है—एक समय आहार, सचित्त परिहार, भूमिशयन, ब्रह्मचर्यव्रत, (समकित धर) पादचार, इत्यादि कठिन अभिग्रह यात्रा की जाय वहां तक पाले जाये, ऐसे प्रथम ही ग्रहण करना। पालखी, घोड़े इत्यादि ऋद्धि हो, तो भी यात्रा करने को निकले हुए धनाढ्य श्रावक को भी यथाशक्ति पैदल ही चलना उचित है। कहा है कि यात्रा करनेवाले श्रावक को १ एकाहारी, २ समकितधारी, ३ भूमिशयनकारी, ४ सचित्त परिहारी, ५ पादचारी और ६ ब्रह्मचारी रहना चाहिए। लौकिकशास्त्र में भी कहा है कि-यात्रा करते वाहन पर बैठे तो यात्रा का आधा फल जावे,जूते पहने तो फल का चौथा भाग जावे, मुंडन करे तो तीसरा भाग जावे और तीर्थ में जाकर दान ले तो यात्रा का सर्व फल जाता रहता है। इसलिए तीर्थयात्रा करनेवाले पुरुष को एक बार भोजन करना, भूमि पर सोना, और स्त्री ऋतुवति होते हुए भी ब्रह्मचारी रहना चाहिए। उपरोक्त कथनानुसार अभिग्रह लेने के बाद यथाशक्ति राजा को भेट आदि से प्रसन्नकर उसकी आज्ञा लेना। यात्रा में साथ लेने के लिए शक्त्यानुसार श्रेष्ठ मंदिर तैयार करना, स्वजन तथा साधर्मिकभाइयों को यात्रा में आने के लिए निमंत्रण करना, भक्तिपूर्वक अपने सद्गुरु को भी निमंत्रित करना। अहिंसा प्रवृत्त करना, जिनमंदिरों में महापूजादि महोत्सव कराना। जिसके पास भाता (नास्ते के लिए अन्न आदि) न हो तो
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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