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________________ 334 श्राद्धविधि प्रकरणम् जानना। उससे पक्ष (पखवाड़े) के अथवा एक, दो, तीन मास के तथा एक दो या अधिक वर्ष के भी नियम शक्ति के अनुसार ग्रहण करने चाहिए। जो नियम जहां तक व जिस रीति से पाला जा सके, वह नियम वहीं तक व उसी रीति से लेना। नियम इस प्रकार ग्रहण करना कि, जिससे क्षणमात्र भी नियम बिना रह न सके। कारण कि, विरति करने में फल का बड़ा ही लाभ है, और अविरतिपन में बहुत ही कर्मबंधनादिक दोष हैं। यह बात पूर्व में ही कही जा चुकी है। पूर्व में जो नित्य नियम कहे गये हैं, वे ही नियम वर्षाकाल के चातुर्मास में विशेष करके लेना चाहिए। जिसमें दिन में दो बार अथवा तीन बार पूजा (अष्टप्रकारी आदि पूजा), संपूर्ण देववन्दन, जिनमंदिर में सर्व जिनबिंब की पूजा अथवा वंदना, स्नात्र महोत्सव, महापूजा, प्रभावना आदि का अभिग्रह लेना। तथा गुरु को बड़ी वंदना करना, प्रत्येक साधु को वंदना करना, चौबीस लोगस्स का काठस्सग्ग, नये ज्ञान का पाठ करना, गुरु की सेवा, ब्रह्मचर्य, अचित्त पानी पीना, सचित्त वस्तु का त्याग इत्यादि अभिग्रह लेना। तथा वासी, द्विदल, पुरी, पापड़, वड़ी, सूखा शाक (जिसमें जीवात हो गये हो), तन्दुलीयादि पत्ते की भाजी, खारिक, खजूर, द्राक्ष, शक्कर, सोंठ आदि वस्तु का वर्षाकाल के चातुर्मास में त्याग करना। कारण कि, इन वस्तुओं में नीलफूल, कुंथुए, इली आदि संसक्त जीव उत्पन्न होने का संभव रहता है। औषध आदि के कार्य में उपरोक्त कोई वस्तु लेना हो तो अच्छी प्रकार देखकर बहुत ही यतना से लेना। उसी प्रकार वर्षाकाल के चातुर्मास में चारपाई, नहाना, सिर में फूल आदि गुंथाना, हरा दातौन, जूते आदि वस्तु का यथाशक्ति त्याग करना। भूमि खोदना, वस्त्र आदि रंगना, गाड़ी आदि हांकना, ग्राम परग्राम जाना इत्यादिक की भी बाधा लेना। घर, बाजार, भीत, थंभा, पाट, कपाट, पाटिया, पाटी, छीका (शीका) घी के तेल के तथा जल आदि के दूसरे बरतन, ईंधन, धान्य, आदि सर्ववस्तुओं की नीलफूल आदि जीव की संसक्ति न हो, तदर्थ जिसको जैसा योग्य हो तदनुसार किसीको चूना लगाना, किसी में राख मिलाना तथा मेल निकाल डालना, धूप में डालना, शरदी अथवा भेज न हो ऐसे स्थान में रखना इत्यादि यतना करना। जल की भी दो तीन बार छानने आदि से यतना रखना। चिकनी वस्तु गुड़, छाश, जल आदि को अच्छी तरह ढांकने आदि की भी यतना रखना। ओसामण तथा स्नान का जल आदि नीलफूल लगी हुई न हो ऐसी धूलवाली शुद्धभूमि में थोड़ा-थोड़ा और फैलता हुआ डालना। चूल्हे व दीवे को खुला (उघाड़ा) न छोड़ने की यतना रखना। कूटना, दलना, रांधना वस्त्र आदि धोना इत्यादि काम में भी सम्यक प्रकार से देखभाल करके यतना रखना। जिनमंदिर तथा पौषधशाला आदि की भी यथोचित रीति से समारना आदि से यतना रखना। वैसे ही उपधान, मासादिप्रतिमा, कषायजय, इंद्रियजय, योगविशुद्धि, बीसस्थानक, अमृतआठम, एकादश अंग, चौदह पूर्व आदितपस्या तथा नमस्कारफल तप, चतुर्विंशतिका तप, अक्षयनिधि तप, दमयंती तप, भद्रश्रेणी तप, महाभद्रश्रेणी
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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