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________________ _332 श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रकाश-४ : चातुर्मासिककृत्य मूल गाथा - १२ पूर्वार्द्ध पइचउमासं समुचिअ-नियमगहो पाउसे विसेसेण । संक्षेपार्थः श्रावक को प्रत्येक चातुर्मास में तथा विशेषकर वर्षाकाल के चातुर्मास में उचित नियम ग्रहण करने चाहिए ।।१२।। विस्तारार्थ ः जिस श्रावक ने परिग्रहपरिमाण व्रत लिया हो, उसको प्रत्येक चातुर्मास में पूर्व में लिये हुए नियम में संक्षेप करना। जिसने पूर्व में परिग्रहपरिमाण आदि व्रत न लिया हो, उसको भी प्रत्येकचातुर्मास में योग्य नियम (अभिग्रह) ग्रहण करना। वर्षाऋतु के चातुर्मास में तो विशेष करके उचित नियम ग्रहण करना ही चाहिए। उसमें जो नियम जिस समय लेने से बहुत फल प्राप्त हो, तथा जो नियम न लेने से बहुत विराधना अथवा धर्म की निन्दा आदि उत्पन्न हो, वे ही नियम उस समय उचित कहलाते हैं। जैसे वर्षाकाल में गाड़ी आदि न चलाने का नियम लेना तथा बादल, वृष्टि आदि होने से, इल्लीआदि पड़ने के कारण रायण (खिरनी), आम आदि का त्याग करना उचित नियम है। अथवा देश, पुर, ग्राम, जाति, कुल, वय, अवस्था इत्यादिक की अपेक्षा से उचित नियम जानना। वे नियम दो प्रकार के हैं। एक दुःख से पाले जा सकें ऐसे तथा दूसरे सुखपूर्वक पाले जा सकें ऐसे, धनवन्त व्यापारी और अविरतिलोगों से सचित्त रस तथा शाक का त्याग और सामायिक ग्रहण इत्यादि नियम दुःख से पाले जाते हैं, परन्तु पूजा, दान आदि नियम उनसे सुख पूर्वक पाले जा सकते हैं। दरिद्री पुरुषों की बात इससे विरुद्ध है तथापि चित्त की एकाग्रता हो, तो चक्रवर्ती तथा शालिभद्र आदि लोगों ने जैसे दीक्षादि के कष्ट सहन किये, वैसे ही सब नियम सब लोगों से सुखपूर्वक पालन हो सकते हैं। कहा है कि जब तक धीरपुरुष दीक्षा नहीं लेते तभी तक मेरु पर्वत ऊंचा है, समुद्र दुस्तर है, और कार्य की गति विषम है। ऐसा होने पर भी पाले न जा सकें ऐसे नियम लेने की शक्ति न हो, तो भी सुखपूर्वक पाले जा सकें ऐसे नियम तो श्रावक को अवश्य ही लेने चाहिए। जैसे वर्षाकाल में कृष्ण तथा कुमारपाल आदि की तरह सर्वदिशाओं में जाने का त्याग करना उचित है। वैसा करने की शक्ति न हो तो जिस समय जिन दिशाओं में गये बिना भी निर्वाह हो सकता हो, उस समय उन दिशाओं में जाने का त्याग करना। इसी प्रकार सर्व सचित्त वस्तुओं का त्याग न किया जा सके तो, जिस समय जिस वस्तु के बिना निर्वाह हो सकता हो, उस समय उस वस्तु का नियम लेना। जिस मनुष्य को जिस जगह, जिस समय, जो वस्तु मिलना सम्भव न हो, जैसे कि-दरिद्री पुरुष को हाथी आदि, मरुदेश में नागरबेल के पान आदि, तथा आम आदि
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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