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________________ 315 श्राद्धविधि प्रकरणम् न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥१॥ सभी श्रोताजनों को हितवचन सुनने से धर्मप्राप्ति होती ही है, ऐसा नियम नहीं, परंतु भव्यजीवों पर अनुग्रह करने की इच्छा से धर्मोपदेश करनेवाले को तो अवश्य ही धर्मप्राप्ति होती है। मूलगाथा - १० पायं अबभविरओ,समए अप्पं करेइ तो निइं। निहोवरमे थीतणुअसुइत्ताई विचिंतिज्जा ।।१०।। संक्षेपार्थ : तत्पश्चात् सुश्रावक विशेष करके अब्रह्म (रतिक्रीड़ा) से विरक्त रहकर अवसर में अल्प निद्रा ले, और निद्रा उड़ जाये तब मन में स्त्री के शरीर के __ अशुचिपने आदि का चिन्तन करे। विस्तारार्थः सुश्रावक स्वजनों को धर्मोपदेश करने के अनंतर एक प्रहर रात्रि बीत जाने के बाद और मध्यरात्रि होने के पूर्व अपनी शरीरप्रकृति के अनुकूल समय पर शय्यास्थान में जाकर शास्त्रोक्त विधि अनुसार अल्प निद्रा ले। निद्रा लेने को जाते समय श्रावक को कैसे रहना चाहिए? वह कहते हैं अब्रह्म याने रतिक्रीड़ा से विरक्त रहना। तात्पर्ययावज्जीव ब्रह्मचर्य (चतुर्थ व्रत) पालने में असमर्थ हो ऐसे युवाश्रावक को भी पर्वतिथि आदि विशेष दिनों में ब्रह्मचर्य से ही रहना चाहिए। कारण कि, ब्रह्मचर्य का फल बहुत ही भारी है। महाभारत में भी कहा है कि हे धर्मराज! एक रात्रि तक ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले ब्रह्मचारी की जो शुभगति होती है,वह शुभगति सहस्रों यज्ञ करने से भी होती है या नहीं? यह कहा नहीं जा सकता। उपस्थित गाथा में 'निदं विशेष्य है, और 'अप्पं" यह उसका विशेषण है. तथा ऐसा न्याय है कि, 'कोई भी विधि अथवा निषेधका वाक्य विशेषण सहित कहा हो तो वह विधि अथवा निषेध, अंपना संबंध विशेषण के साथ रखता है।' इससे 'निद्रा लेना हो तो अल्प लेना' ऐसा यहां कहने का उद्देश्य है, परंतु 'निद्रा लेना' यह कहने का उद्देश्य नहीं। कारण कि, दर्शनावरणीय कर्म का उदय होने से निद्रा आती है। इसलिए निद्रा लेने की विधि शास्त्र किसलिए करे? जो वस्तु अन्य किसी प्रकार से प्राप्त नहीं होती, उसकी विधि शास्त्र करता है, ऐसा नियम है। इस विषय का प्रथम ही एक बार वर्णन किया जा चुका है। विशेष निद्रा लेनेवाला मनुष्य इस भव से तथा परभव से भी भ्रष्ट हो जाता है। चोर, वैरी, धूर्त, दुर्जन आदि लोग भी सहज में ही उसपर हमला कर सकते हैं। अल्प निद्रा लेना यह महापुरुष का लक्षण है। आगम में कहा है कि अप्पाहारप्पमणिती अप्पनिदा य जे नरा। अप्पोवहिउवगरणा देवावि हु तं नमसंति ॥१॥ जो पुरुष अल्पाहारी,अल्पवचनी, अल्पनिद्रा लेनेवाला तथा उपधि और उपकरण
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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