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________________ 290 श्राद्धविधि प्रकरणम् है।' यह देख कुमार ने शीघ्र उठकर प्रीति से कहा कि, 'हे राक्षसराज! तू महान् सहनशील है, इसलिए मुझ अज्ञानी मनुष्य से जो कुछ अपमान हुआ है उसे क्षमा कर। हे राक्षसराज! तेरी भक्ति को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूं, अतएव तू वर मांग। तेरा कोई कष्टसाध्य कार्य होगा, तो भी मैं क्षणमात्र में कर दूंगा, इसमें शक नहीं।' कुमार के इन वचनों से चकित हो राक्षस मन में सोचने लगा कि, 'अरे! यह तो विपरीत बात हो गयी! देवता होते हुए मुझ पर यह मनुष्य प्राणी प्रसन्न हुआ! मुझ से न बन सके ऐसा कष्ट साध्य कार्य यह सहज में कर डालने की इच्छा करता है! बड़े ही आश्चर्य की बात है कि, नवाण काजल कुए में प्रवेश कराना चाहता है! आज कल्पवृक्ष अपने सेवक के पास से अपना वांछित पूर्ण करने की इच्छा करता है, सूर्य भी प्रकाश के निमित्त किसी अन्य की प्रार्थना करने लगा! मैं श्रेष्ठ देवता हूं, यह मनुष्य मुझे क्या दे सकता है? तथा मेरे समान देवता इससे क्या मांगे? तो भी कुछ मांगू? यह विचारकर राक्षस ने उच्च स्वर से कहा कि, 'जो दूसरों को इच्छित वस्तु दे, ऐसा पुरुष त्रैलोक्य में भी दुर्लभ है। इससे मांगने की इच्छा होते हुए भी मैं क्या मांगू? मैं मांगू ऐसा विचार मन में आते ही मन में के समस्त सद्गुण और 'मुझे दो' यह वचन मुख में से निकालते ही शरीर में से समस्त सद्गुण मानो डर से भाग जाते हैं। दोनों प्रकार के मार्गण (बाण और याचक) दूसरों को पीड़ा करनेवाले तो हैं ही; परन्तु उसमें आश्चर्य यह है कि, प्रथम तो शरीर में प्रवेश करने पर ही पीड़ा करता है, परन्तु दूसरा तो देखते ही पीड़ा उत्पन्न कर देता है। अन्य वस्तु से धूल हलकी, धूल से तृण हलका, तृण से रूई हलकी, रूई से पवन हलका, पवन से याचक हलका, और याचक से हलका याचक को ठगनेवाला है। कहा है कि-'हे माता। किसीके पास मांगने जावे ऐसे पुत्र को तू मत जनना।' तथा कोई मांगने आवे उसकी आशा भंग करनेवाले पुत्र को तो गर्भ में भी धारण मत कर। इसलिए हे उदार, जगदाधार रत्नसारकुमार! यदि मेरी मांगनी वृथा न जाय तो मैं कुछ मांगू।' रत्नसार ने कहा, 'अरे राक्षसराज! मन, वचन, काया, धन, पराक्रम, उद्यम अथवा जीव का भोग देने से भी तेरा कार्य सधे तो मैं अवश्य करूंगा।' यह सुन राक्षस ने आदरपूर्वक कहा, 'हे भाग्यशाली श्रेष्ठीपुत्र! यदि ऐसा ही है तो तू इस नगरीका राजा हो। हे कुमार! तेरे में सर्वोत्कृष्ट सद्गुण हैं, यह देख मैं तुझे हर्षपूर्वक यह समृद्ध राज्य देता हूं, उसे तू इच्छानुसार भोग। मैं तेरे वश में हो गया हूं, अतएव सदैव सेवक की तरह तेरे पास रहूंगा, और दिव्यऋद्धि, दिव्यभोग, सेनाआदि अन्य जिस वस्तु की आवश्यकता होगी वह दूंगा। मन में शत्रुता रखनेवाले समस्त राजाओं को मैंने जड़ मूल से नष्ट कर दिये हैं, अतएव अन्य अग्नि तो जल से बुझती है, परन्तु तेरी प्रतापरूपी नवीन अग्नि शत्रुओं की स्त्रियों के अश्रुजल से वृद्धि पावे। हे कुमारराज! मेरी तथा अन्यदेवताओं की सहायता से सम्पूर्ण जगत् में तेरा इन्द्र की तरह एक-छत्र राज्य हो। लक्ष्मी से इन्द्र की समानता करते, इस लोक में साम्राज्य भोगते हुए तेरा कीर्तिगान देवांगनाएं भी स्वर्ग में करें।'
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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