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________________ 270 श्राद्धविधि प्रकरणम् संतप्त कनकध्वज राजा महीनों को वर्ष के समान और वर्षों को युगसमान व्यतीत करने लगा। शंकर की दृष्टि सामने के मनुष्य को जैसे कष्टकारी होती है, वैसे ही कन्या चाहे कितनी ही श्रेष्ठ हो, तो भी वह अवश्य अपने पिता को दुःखदायक होती है! कहा है कि पिता को कन्या के उत्पन्न होते ही 'कन्या हुई ऐसी भारी चिन्ता मन में रहती है। क्रमशः 'अब वह किसको देना' ऐसी चिन्ता रहती है। लग्न करने के अनन्तर 'पति के घर सुख से रहेगी या नहीं?' यह चिन्ता उत्पन्न होती है, इसलिए कन्या का पिता होना बहुत ही कष्टदायक है, इसमें शक नहीं। ____ इतने में कामदेव राजा की महिमा जगत् में अतिशय प्रसिद्ध करने के हेतु अपनी सम्पूर्ण ऋद्धि को साथ लेकर वसन्तऋतु वन के अन्दर उतरा। वह ऐसा लगता था मानो जिसका अहंकार सर्वत्र फैल रहा है, ऐसे कामदेव राजा का तीनों लोकों को जीतने से उत्पन्न हुआ यश मनोहर तीन गीतों से गा रहा है। तीनों गीतों में प्रथम गीत है मलयपर्वत के ऊपर से आनेवाले पवन की सनसनाहट, दूसरा भ्रमरों की झंकार व तीसरा है कोकिलपक्षियों का सुमधुर शब्द, उस समय क्रीड़ारस से अत्यन्त उत्सुक हुई वे दोनों राजकन्याएं मन का आकर्षण होने से हर्षित होकर वन में गयीं। कोई हाथी के बच्चे पर, तो कोई घोड़े पर, कोई मिश्रजाति के घोड़े पर, तो कोई पालखी अथवा रथ आदि में इस प्रकार तरह-तरह के वाहन में बैठकर बहुत सखियां उनके साथ निकली। पालखी में सुखपूर्वक बैठी हुई सखियों के परिवार से शोभायमान दोनों राजकन्याएं ऐसी शोभा दे रही थीं कि मानो विमान में आरूढ़ व देवियों के परिवार युक्त साक्षात् लक्ष्मी व सरस्वती हो। शोक को समूल नाश करनेवाले अनेक अशोकवृक्ष जिसमें सर्वत्र व्याप्त हैं ऐसे अशोकवन नामक उद्यान में वे राजकन्याएं आ पहुंची। अन्दर के बिन्दु के समान भ्रमरों से युक्त होने के कारण नेत्रों के समान दिखते हुए पुरुषों के साथ मानो प्रीति से ही नेत्रमिलाप करनेवाली उक्त दोनों राजकन्याएं उद्यान देखने लगी। तरुणी अशोकमंजरी क्रीड़ा करनेवाली स्त्री के चित्त को उत्सुक करनेवाली, रक्त अशोकवृक्ष की शाखा में बंधे हुए हिंडोले पर चढ़ी। उस पर दृढ़ रखनेवाली सुन्दरी तिलकमंजरी ने प्रथम हिंडोले को झूले दिये। स्त्री के वश में पड़ा हुआ पतिजैसे उसके पादप्रहार से हर्षित होकर शरीर पर विकसित रोमांच धारण करता है, वैसे ही अशोकमंजरी के पादप्रहार से सन्तुष्ट हुआ अशोकवृक्ष विकसितपुष्पों के बहाने से मानो अपनी रोमावली विकसित करने लगा। आश्चर्य की बात यह है कि, हिंडोले पर बैठकर झलनेवाली अशोकमंजरी तरुण पुरुषों के मन में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्नकर उनके मन और नेत्रों को भी हिंडोले पर चढ़े हों उस तरह झलाने लगी। उस समय रुमझुमशब्द करनेवाले अशोकमंजरी के रत्नजडित पैंजन आदि आभूषण मानों टूटने के भय से ही आक्रोश करने लगे, ऐसा ज्ञात होता था। क्रीड़ा रस में निमग्न हुई अशोकमंजरी की ओर तरुण पुरुष पुलकित होकर, और तरुणस्त्रियां मन में ईर्ष्या लाकर क्षणमात्र देख रही थीं, इतने में दुर्भाग्यवश प्रचंड पवन
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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