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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 213 सुन सबने भय से उसे छोड़ दिया। परन्तु सुनार ने उससे कहा-'नीचे गिर तदनुसार सुवर्णपुरुष नीचे गिर गया। सुनार ने उसकी एक अंगुली काटकर शेष भाग को एक गड्ढे में फेंक दिया, यह सबने देखा। पश्चात् उनमें से दो जने भोजन लाने के लिए गांव में गये और शेष दोनों को मारने की इच्छा से विष-मिश्रित अन्न लाये। इधर उन दोनों ने इन दोनों को आते ही खड्ग प्रहार से मार डाला और स्वयं विष-मिश्रित अन्न भक्षण किया जिससे मर गये। सारांश यह कि पापऋद्धि से द्रव्य के कारण चारों का विनाश हो गया। नित्य धर्म में द्रव्य व्यय का विशेष फल : इसलिए प्रतिदिन देवपूजा, अन्नदान आदि पुण्य तथा अवसर पर संघपूजा, साधर्मिकवात्सल्य आदि पुण्य कृत्य करके अपनी लक्ष्मी धर्मकृत्य में लगानी चाहिए। साधर्मिकवात्सल्य आदि पुण्य कृत्य बहुत द्रव्य का व्यय करने से होते हैं, इसीलिए वे श्रेष्ठ भी कहलाते हैं तथा नित्य होनेवाले पुण्य छोटे कहलाते हैं। यह बात सत्य है, तथापि ये पुण्य नित्य करते रहना चाहिए, क्योंकि उससे भी बहुत फल उत्पन्न होता है। इसलिए नित्य के पुण्य कार्य करके ही अवसरपुण्य करना उचित है। धन अल्प हो अथवा ऐसे ही अन्य कारण हों तो भी धर्मकार्य करने में विलंब न करना चाहिए। कहा है कि देयं स्तोकादपि स्तोकं, न व्यपेक्षो महोदयः। इच्छानुसारिणी शक्तिः, कदा कस्य भविष्यति? ॥१॥ अल्प धन हो तो अल्प में से अल्प भी देना, परन्तु बड़े उदय की अपेक्षा नहीं रखना। इच्छानुसार दान देने की शक्ति कब किसे मिलनेवाली है? कल करने का विचार किया हुआ धर्मकार्य आज ही करना। तथा पिछले प्रहरको धारा हुआ धर्मकार्य दुपहर के पूर्व ही कर लेना चाहिए। कारण कि, मृत्यु आती है तो यह विचार नहीं करती कि, 'इसने अपना कर्तव्यकर्म कितना कर लिया है, तथा कितना बाकी रखा है?' अति लोभ न करना : ___ द्रव्योपार्जन करने का भी यथायोग्य उद्यम नित्य करना चाहिए। कहा है किवणिक, वेश्या, कवि, भट्ट, चोर, ठग, ब्राह्मण ये मनुष्य जिस दिन कुछ लाभ न हो उस दिन को निष्फल मानते हैं। अल्प लक्ष्मी की प्राप्ति होने से उद्यम नहीं छोड़ देना चाहिए। माघकवि ने कहा है कि जो मनुष्य अल्प संपत्ति के लाभ से अपने को उत्तम स्थिति में मानता है उसका दैव भी कर्तव्य किया जान कर उसकी संपत्ति नहीं बढ़ाता, ऐसा जान पड़ता है। अत्यन्त लोभ भी न करना चाहिए। लोक में भी कहा है कि अतिलोभ न करना, तथा लोभ का समूल त्याग भी न करना। अतिलोभ वश सागर श्रेष्ठी समद्र में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हुआ था। अपरिमित इच्छा जितना धन किसीको भी मिलना संभव नहीं है। निर्धन मनुष्य चक्रवर्ती होने की इच्छा चाहे करे परन्तु वह कदापि नहीं हो सकता। भोजनवस्त्रादि तो
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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