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श्राद्धविधि प्रकरणम् यह लाभ है कि, परिणाम की दृढ़ता होती है, भगवान् की आज्ञा का पालन होता है और कर्म के क्षयोपशम की वृद्धि होती है। ऐसे दिन के अथवा चातुर्मास के नियमादि का भी योग हो तो गुरु साक्षी से ही ग्रहण करना।
पंच नामादि बाईस मूलद्वार तथा चारसो ब्यानवे प्रतिद्वार सहित द्वादशावत वन्दन विधि तथा दस प्रत्याख्यानादि नव मूलद्वार सहित पच्चक्खाण विधि भी भाष्यादि ग्रंथ में से जान लेना चाहिए। पच्चखाण का लेशमात्र स्वरूप पूर्व में कहा है। पच्चक्खाण का फल :
धम्मिलकुमार ने छः मास तक आंबिल तपकर बड़े-बड़े श्रेष्ठियों की, राजाओं की तथा विद्याधरों की बत्तीस कन्याओं से विवाह किया तथा अपार ऋद्धि प्राप्त की। यह इस लोक का फल है। तथा चार हत्या का करनेवाला दृढ़प्रहारी छः मास तप करके उसी भव में मुक्ति को गया यह परलोक का फल है। कहा है कि
पच्चक्खाणंमि कर, आसवदाराई हुंति पिहिआहिं। आसववुच्छेअण य, तण्हावुच्छेअणे हवइ ॥१॥ तण्हावुच्छेएणं, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं। अउलोवसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं ।।२।। तत्तो चरित्तधम्मो, कम्मविवेगो अपुव्वकरणं तु।
तत्तो केवलनाणं, तत्तो मुक्खो सयासुक्खो ॥३॥ पच्चक्खाण करने से आश्रव द्वार का उच्छेद होता है। आश्रव के उच्छेद से तृष्णा का उच्छेद होता है। तृष्णा के उच्छेद से मनुष्यों को बहुत उपशम होता है। बहुत उपशम सें पच्चक्खाण शुद्ध होता है। शुद्ध पच्चक्खाण से चारित्र धर्म प्राप्त होता है। चारित्रधर्म की प्राप्ति से कर्म का विवेक (क्षय) होता है। कर्म के विवेक से अपूर्वकरण की प्राप्ति होती है। अपूर्वकरण से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। व केवलज्ञान उत्पन्न होने से सदैव सुख के दाता मोक्ष की प्राप्ति होती है। पश्चात् श्रावक को साधु-साध्वी आदि चतुर्विध संघ को वन्दना करना। सद्गुरु विनय :
जिनमंदिर आदि स्थल में गुरु का आगमन हो उनका अच्छी तरह आदर सत्कार करना। कहा है कि
अभ्युत्थानं तदालोकेऽभियानं च तदागमे। शिरस्यञ्जलिसंश्लेषः, स्वयमासनढौकनम् ॥१॥ आसनाभिग्रहो भक्त्या, वन्दना पर्युपासनम्। तद्यानेऽनुगमश्चेति, प्रत्तिपत्तिरियं गुरोः ।।२।।
गुरु को देखते ही खड़ा हो जाना, आते हों तो संमुख जाना, दोनों हाथ जोड़कर सिरपर अंजलि करना, आसन देना, गुरु के आसन पर बैठ जाने के बाद बैठना,