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श्राद्धविधि प्रकरणम् महेन्द्र नामक नगर में एक सुन्दर जिनमंदिर था। उसमें चंदन, कपूर, फूल, अक्षत, फल, नैवेद्य, दीप, तैल, भंडार, पूजा की सामग्री, पूजा की रचना, मंदिर का समारना, देवद्रव्य की उघाई, उसका हिसाब लिखना, यत्नपूर्वक देवद्रव्य रखना, उसके जमाखर्च का विचार करना, इतने काम करने के निमित्त श्रीसंघ ने प्रत्येक कार्य में चार-चार मनुष्य नियत किये थे। वे लोग अपना-अपना कार्य यथारीति करते थे। एक दिन उघाई करनेवालों में से मुख्य मनुष्य एक जगह उघाई करने गया, वहां उघाई न होते उलटे देनदार के मुख में से निकले हुए दुर्वचन सुनकर वह बहुत दुःखी हुआ
और उस दिन से वह उघाई के कार्य में प्रमाद करने लगा, 'जैसा मुख्य व्यक्ति वैसे ही उसके हाथ नीचे के लोग होते हैं।' ऐसा लोक व्यवहार होने से उसके अधीनस्थ लोग भी प्रमाद करने लगे। इतने में ही देश का नाश आदि होने से उधार रहा हुआ बहुतसा देवद्रव्य भी नष्ट हो गया। उस कर्म के दोष से उघाई करनेवालों का उक्त प्रमुख व्यक्ति असंख्याता भव में भटका इत्यादि।
इसी प्रकार देवद्रव्य आदि जो देना हो वह अच्छा देना। घिसा हआ अथवा खोटा द्रव्य आदि न देना। कारण कि, वैसा करने से किसी भी प्रकार से देवद्रव्यादिक का उपभोग करने का दोष होता है। वैसे ही देव, ज्ञान तथा साधारण द्रव्य संबंधी घर, दुकान, खेत, बाड़ी, पाषाण, ईंट, काष्ठ, बांस, नलिया, माटी, खड़िया आदि वस्तु तथा चन्दन, केशर, कपूर, फूल, छबड़ियां, चंगेरी, धूपदान, कलश, वालाकुंची, छत्रसहित सिंहासन, चामर, चंदरवा, झालर, भेरी आदि वाद्य, तंबू, कोड़ियां (मिट्टी के दीवे) पड़दे, कम्बल, चटाई, कपाट, पाट, पटिया, पाटलियां, कुंडी, घड़े, ओरसिया, काजल,जल व दीपक आदि वस्तु तथा मंदिर की शाला में होकर नाली के मार्ग से आया जल आदि भी अपने कार्य के निमित्त न वापरना। कारण कि देवद्रव्य की तरह उसके उपभोग से भी दोष लगता है। चामर, तम्बू आदि वस्तु तो काम में लेने से कदाचित् मलिन होने तथा टूटने फूटने का भी संभव है, जिससे उपभोग करने की अपेक्षा भी अधिक दोष लगता है। कहा है कि
विधाय दीपं देवानां, पुरस्तेन पुनर्नहि। - गृहकार्याणि कार्याणि, तिर्यङपि भवेद्यतः ।।१।।
भगवान् के संमुख दीप पूजा के लिए दीपक करके उसी दीपक से घर के काम न करना। वैसा करने से तिर्यग्योनि में जाता है। जैसे किऊँटनी :
इन्द्रपुर नगर में देवसेन नामक एक व्यवहारी था, और धनसेन नामक एक ऊंटसवार उसका सेवक था। धनसेन के घर से नित्य एक ऊंटनी देवसेन के घर आती थी। धनसेन उसे मार-पीटकर ले जाता तो भी वह स्नेह से पुनः देवसेन के घर आ जाती। अंत में देवसेन ने उसे मोल लेकर अपने ही घर रख ली। किसी समय ज्ञानी मुनिमहाराज को उस ऊंटनी के स्नेह का कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि यह ऊंटनी