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________________ 152 श्राद्धविधि प्रकरणम् करता है वह परिमित (अल्प) संसारी होता है। केवलिभाषित धर्म की वृद्धि करनेवाले और ज्ञान-दर्शन के गुणों की प्रभावना करनेवाले देवद्रव्य की, पूर्व का हो उसकी रक्षा तथा नया संचित करके उसकी वृद्धि करे वह केवलिभाषित धर्म की अतिशय भक्ति करने से तीर्थकर पद पाता है। 'पन्द्रह कर्मादान तथा अन्य निंदाजनक व्यापार छोड़कर उत्तम व्यवहार से तथा न्यायमार्ग से ही देवद्रव्य की वृद्धि करनी चाहिए। कहा है किमोहवश कोई-कोई अज्ञानी पुरुष जिनेश्वर भगवान की आज्ञा से विपरीत मार्ग से देवद्रव्य की वृद्धिकर संसार समुद्र में डूबते हैं। "श्रावक सिवाय अन्य लोगों के पास से अधिक वस्तु बदले में रखना तथा व्याज भी विशेष लेकर देवद्रव्य की वृद्धि करना उचित है" ऐसा कुछ लोगों का मत है। सम्यक्त्व वृत्ति आदि ग्रंथों में संकाश की कथा के प्रसंग में ऐसा ही कहा है। देवद्रव्य के भक्षण और रक्षण ऊपर सागरश्रेष्ठी का दृष्टांत है। यथासागर सेठ की कथा : साकेतपुर नामक नगर में अरिहंत का भक्त श्रेष्ठी सागर नामक एक सुश्रावक रहता था। वहां के अन्य सब श्रावकों ने सागर श्रेष्ठी को सुश्रावक समझ सर्व देवद्रव्य सौंपा. और कहा कि 'मंदिर के काम करनेवाले सुतार आदि को यह द्रव्य यथोचित्त देना' सागरश्रेष्ठी ने लोभ से देवद्रव्य के द्वारा धान्य, गुड़, घृत, तैल, वस्त्र आदि बहुतसी वस्तुएं मोल ले ली, और सुतार आदिकों को नकद पैसा न देते उसके बदले में धान्य, गुड़, घृत आदि वस्तुएँ महंगे भाव से देने लगा और इससे जो लाभ मिलता था वह रख लेता था। ऐसा करते-करते उसने एक हजार कांकणी (रुपये के अस्सीवें भागरूप) का लाभ लिया, और उससे महान घोर पाप-कर्म उपार्जित किया। उसकी आलोचना न कर मृत्यु पाकर समुद्र में जलमनुष्य हुआ। वहां जात्यरत्न के ग्राहकों ने जल तथा जलचरजीवों के उपद्रव को दूर करनेवाले अंडगोलिका का ग्रहण करने के निमित्त उसे वज्रघरट्ट में पीला। वह महाव्यथा से मरकर तीसरी नरक में नारकी हुआ। वेदान्त में भी कहा है कि देवद्रव्य तथा गुरुद्रव्य से हुई द्रव्य की वृद्धि परिणाम में अच्छी नहीं। क्योंकि, उससे इसलोक में कुलनाश और मृत्यु के अनन्तर नरकगति होती है। नरक में से निकलकर पांचसो धनुष लम्बा महान् मत्स्य हुआ। उस भव में किसी म्लेच्छ ने उसके सर्वांग को छेदकर महान् कदर्थना की। उससे मृत्यु को प्राप्त होकर चौथे नरक में नारकी हुआ। इस प्रकार एक-एक भव बीच में करके सातों नरकों में दो-दो बार उत्पन्न हुआ। पश्चात् लगातार तथा अंतर से श्वान, सूवर, मेष, बकरा, भेड़ (घेटा), हरिण,खरगोश, शबर (एक जाति का हीरण),शियाल, बिल्ली, मूषक, न्यौला, मकड़ी,छिपकली,गोहेरा (विषखपरा),सर्प,बिच्छू, विष्ठा के कृमि, पृथ्वीकाय, १. वर्तमान में इन व्यापारों से धनार्जनकर देवद्रव्य की वृद्धि में धर्म माननेवाले और जो मूल में साधारण द्रव्य है उसे देवद्रव्य का सिक्का लगानेवाले मनन-चिंतन अवश्य करें।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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