________________
127
श्राद्धविधि प्रकरणम् आसन्नसिद्धिआणं, विहिपरिणामो उ होई सयकालं। विहिचाओ अविहिभत्ती, अभव्वजिअदूरभव्वाणं ।।२।। जिनको विधिपूर्वक धर्मक्रिया करने का परिणाम प्रतिपल होता है वे पुरुष तथा विधिपक्ष की आराधना करनेवाले, विधिपक्ष का सत्कार करनेवाले और विधिपक्ष को दोष न देनेवाले पुरुष भी धन्य हैं। आसन्नसिद्धिजीवों को ही विधि से धर्मानुष्ठान करने का सदा परिणाम होता है। तथा अभव्य और दुरभव्य हो उसको तो विधि का त्याग और अविधि की सेवा करने का ही परिणाम होता है। खेती, व्यापार, सेवा आदि तथा भोजन, शयन, बैठना, आना, जाना, बोलना इत्यादि क्रिया भी द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि विधि से की हो तो फलदायक होती हैं, अन्यथा अल्प फलवाली होती हैं।
इस बात पर दृष्टांत सुनते हैं कि-दो मनुष्यों ने द्रव्य के निमित्त देशांतर को जाकर एक सिद्धपुरुष की बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न हो उस सिद्धपुरुष ने उनको अद्भुत प्रभावशाली तुम्बी-फल के बीज दिये। उनकी सर्व आम्नाय भी कही। जैसेसौ बार जोते हुए खेत में धूप न हो वैसे अमुक वार नक्षत्र का योग हो, तब ये बीज बोना। बेल हो जाने पर बीजों का संग्रह कर लेना फिर उस स्थान पर ऐसा संस्कार यानि उन बेलों के नीचे ऐसा पदार्थ रखना कि उस बेल को जलाने पर राख व्यर्थ न जाय फिर पत्र, पुष्प, फल सहित बेलड़ी को उसी खेत में जला देना। उसकी बनी हुइ भस्म एक माषा भर ले चौसठ माषा भर तांबे में डाल देना उससे जात्य (सो टच का) सोना हो जाता है। ऐसी सिद्धपुरुषकी शिक्षा लेकर वे दोनों व्यक्ति घर आये। उनमें से एक को तो बराबर विधि के अनुसार क्रिया करने से जात्यसुवर्ण हो गया, दूसरे ने विधि में कुछ कसर की जिससे चांदी हुई। इसलिए सर्व कार्यों में विधि भली प्रकार जानना चाहिए व अपनी सर्वशक्ति से उस विधि अनुसार क्रिया करनी चाहिए। . पूजा आदि पुण्यक्रिया करने के अनंतर सर्वकाल विधि की कोई आशातना हुई हो, उसके लिए मिथ्यादुष्कृत देना। पूर्वाचार्य अंगपूजादि तीन पूजाओं का फल इस रीति से कहते हैं-प्रथम अंगपूजा विघ्न की शांति करनेवाली है, दूसरी अग्रपूजा अभ्युदय करनेवाली है और तीसरी भावपूजा निर्वाण की साधक है। इस प्रकार तीनों पूजाएं नाम के अनुसार फल देनेवाली हैं। यहां पूर्वोक्त अंगपूजा तथा अग्रपूजा और चैत्य कराना, उनमें जिनबिम्ब की स्थापना कराना, तीर्थ यात्रा करना इत्यादि सर्व द्रव्यस्तव है। कहा है कि
जिणभवणबिंबठवणाजत्तापूआइ सुत्तओ विहिणा।
दव्वत्थओ ति नेओ, भावत्थयकारणत्तेण ॥१॥ जिनमंदिर की और जिनबिंब की प्रतिष्ठा, यात्रा, पूजा आदि धर्मानुष्ठान सूत्रों में कही हुई विधि के अनुसार करना। ये सर्व यात्रा आदि द्रव्यस्तव हैं ऐसा जानना, कारण कि, ये भावस्तव के कारण हैं। यद्यपि संपूर्ण पूजा प्रतिदिन परिपूर्णतया नहीं की जा