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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
- ४९१ इस प्रकार प्रकृतिसंक्रम का विचार कर आगे प्रकृतिस्थानसंक्रम की सूचना करते हुए बतलाया गया है कि ज्ञानावरणीय, वेदनीय, गोत्र और अन्तराय का एक एक ही संक्रमस्थान है । दर्शनावरण के नौ प्रकृतिक और छह प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान हैं। मोहनीय के संक्रमस्थानों का विचार कषायप्राभृत में विस्तार के साथ किया है । नामकर्म की पिण्डप्रकृतियों के आश्रय से स्थान समुत्कीर्तना करनी चाहिए । इस प्रकार अलग-अलग प्रकृतियों के संक्रमस्थान जानकर उनके आश्रय से स्वामित्व और काल आदि सब अनुयोगद्वारों का विचार करने की सूचना करके यह प्रकरण समाप्त किया गया है ।
आगे स्थितिसंक्रम का निर्देश करके उसकी प्ररूपणा इस प्रकार की है। स्थितिसंक्रम दो प्रकार का है - मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम । स्थितिसंक्रम तीन प्रकार से होता है । यथा-स्थिति का अपकर्षण होने पर स्थितिसंक्रम होता है, स्थिति का उकर्पण होने पर स्थितिसंक्रम होता है और स्थिति के अन्य प्रकृति को प्राप्त करने पर भी स्थितिसंक्रम होता है । अपकर्षण की अपेक्षा संक्षेप में स्थितिसंक्रम का विचार इस प्रकार है - उदयावलि के भीतर की सब स्थितियों का अपकर्षण नहीं होता । उदयावलि के बाहर जो एक समय उदयावलिप्रमाण स्थिति है उसका अपकर्षण होता है । अपकर्षण होकर उसका एक समय कम आबलि के दो बटे तीन भागप्रमाण स्थिति को अतिस्थापनारूप से रखकर एक अधिक तृतीय भाग में निक्षेप होता है । इससे आगे की स्थिति का अपकर्षण होने पर एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना प्राप्त होने तक उसकी वृद्धि होती है और निक्षेप उतना ही रहता है । इससे आगे अतिस्थापना अवस्थितरूप से एक आवलिप्रमाण ही रहती है और निक्षेप उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है । उत्कर्षण के विषयमें यह नियम है कि उदयावलि के भीतर की सब स्थितयों का उत्कर्षण नहीं होता । एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिका उत्कर्षण होता है। किन्तु उसका नहीं बँधनेवाली स्थिति में निक्षेप न होकर बँधने वाली जघन्य स्थिति से लेकर ऊपर की सब स्थितियों में निक्षेप होता है। यह विधि उत्कर्षण को प्राप्त होने वाली नीचे की स्थितियों की कही है। ऊपर की स्थितियों का उत्कर्षण किस प्रकार होता है इसका विचार करने पर यदि यह जीव सत्कर्म से एक समय अधिक स्थिति का बन्ध करता है तो पूर्वबद्ध कर्म की अन्तिम स्थिति का उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि यहाँ पर अतिस्थापना और निक्षेप का अभाव है। पूर्वबद्ध कर्म की द्विचरम स्थिति का भी उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि यहाँ पर भी अतिस्थापना और निक्षेप सम्भव नहीं है । इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्म की एक आबलि और एक आबलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति के नीचे जाने तक जितने भी स्थितिविकल्प हैं उनका उत्कर्षण सम्भव नही।