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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४१८ में ये गुणश्रेणि के स्थान कुल दस गिनाये हैं। वहाँ जिनके दो भेदों का आश्रय कर प्रतिपादन नहीं करना इसका कारण है । यहाँ पहले दो सूत्र गाथाओं में इन ग्यारह गुणश्रेणि निर्जरा और उनके काल का विचार कर अनन्तर गद्यसूत्रों द्वारा इनका स्वतन्त्र विचार किया गया है।
द्वितीय चूलिका आगे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान का कथन करने के लिए प्रारम्भ होती है । इस प्रकरण के ये बारह अनुयोगद्वार हैं - अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अन्तर-प्ररूपणा, काण्डक प्ररूपणा, ओजयुग्मप्ररूपणा, षट्स्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थानप्ररूपणा, समय प्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा।
(१) अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा - कर्मों के जितने भेद-प्रभेद उपलब्ध होते हैं उनमें हीनाधिक अनुभाग शक्ति पाई जाती है। यह शक्ति कहाँ कितनी होती है इसका विचार अनुभाग शक्ति में उपलब्ध होने वाले अविभागप्रतिच्छेदों के आधार से किया जाता है। अविभागप्रतिच्छेद उन शक्त्यंशों की संज्ञा है जो विभाग के अयोग्य होते हैं। शक्ति का यह विभाग बुद्धि द्वारा किया जाता है। उदाहरणार्थ, एक ऐसी शक्ति लो जो सर्वाधिक हीन दर्जे की है । पुन: इससे दूसरे दर्जे की शक्ति लो और देखो कि इन दोनों शक्तियों में कितना अन्तर है और उस अन्तर का कारण क्या है । अनुभव से प्रतीत होगा कि पहली शक्ति से दूसरी शक्ति में जो एक शक्यंश की वृद्धि दिखाई देती है उसी का नाम अविभागप्रतिच्छेद है । अनुभागसम्बन्धी ऐसे अविभाग प्रतिच्छेद एक अनुभागस्थान में अनन्तानन्त उपलब्ध होते हैं। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जितने कर्मपरमाणुओं में ये अविभागप्रतिच्छेद समान उपलब्ध होते हैं उनमें से प्रत्येक कर्मपरमाणु के अविभागप्रतिच्छेदों की वर्ग संज्ञा है और वे सब कर्मपरमाणु मिलकर वर्गणा कहलाते हैं । यह प्रथम वर्गणा है । पुन: इनसे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेद को लिए हुए जितने कर्मपरमाणु होते हैं उनकी दूसरी वर्गणा बनती है । इस प्रकार निरन्तर क्रम से एक एक अविभागप्रतिच्छेद की वृद्धि के साथ तीसरी आदि वर्गणाएँ जहाँ तक उत्पन्न होती हैं उन सबकी स्पर्धक संज्ञा है । एक स्पर्धक में ये वर्गणाएँ जहाँ तक उत्पन्न होती हैं उन सबकी स्पर्धक संज्ञा है । एक स्पर्धक में ये वर्गणाएँ अभव्यों से अनन्तगणीं और सिद्धों के अनन्तवें भाग उपलब्ध होती हैं। यह प्रथम स्पर्धक है। इसके आगे सब जीवों से अनन्तगुण अविभागप्रतिच्छेदों का अन्तर देकर द्वितीय स्पर्धक प्रारम्भ होता है और जहाँ जाकर द्वितीय स्पर्धक की समाप्ति होती है उससे आगे भी उत्तरोत्तर इसी प्रकार अन्तर देकर तृतीयादि स्पर्धक प्रारम्भ होते हैं जो प्रत्येक अभव्यों से अनन्तगुणी
और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण वर्गणाओं से बनते हैं। इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा में कहाँ कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं इसका विचार किया जाता है ।