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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४०९ है । एक समय को कालजघन्य और परमाणु में रहने वाले एक स्निधत्व आदि गुण को भावजघन्य कहा गया है। आदेशत: तीन प्रदेशवाले स्कन्ध की अपेक्षा दो प्रदेशवाला स्कन्ध द्रव्यजघन्य, तीन आकाशप्रदेशों में अधिष्ठित द्रव्य की अपेक्षा दो आकाशप्रदेशों में अधिष्ठित द्रव्य क्षेत्रजघन्य, तीन समय परिणत द्रव्य की अपेक्षा दो समय परिणत द्रव्य कालजघन्य, तथा तीन गुण-परिणत द्रव्य की अपेक्षा दो गुण-परिणत द्रव्य भावजघन्य है । इसी प्रकार से आदेश की अपेक्षा इन द्रव्यजघन्यादि के भेदों की आगे भी कल्पना करना चाहिये । जैसे, चार प्रदेश वाले स्कन्ध की अपेक्षा तीन प्रदेशवाला तथा पाँच प्रदेशवाले स्कन्ध की अपेक्षा चार प्रदेश वाला स्कन्ध आदेश की अपेक्षा द्रव्यजघन्य है, इत्यादि । यही प्रक्रिया उत्कृष्ट के सम्बन्ध में भी निर्दिष्ट की गयी है । विशेष इतना है कि यहाँ ओघ की अपेक्षा महास्कन्ध को द्रव्य-उत्कृष्ट, लोकाकाश को कर्मक्षेत्र-उत्कृष्ट, आकाशद्रव्य को नोकर्मक्षेत्र- उत्कृष्ट, अनन्त लोकों काल-उत्कृष्ट और सवोत्कृष्ट वर्णादि को भाव - उत्कृष्ट कहा गया है। आगे इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य वेदनायें किन-किन जीवों के कौन-कौनसी अवस्था में होती हैं, इस प्रकार इन वेदनाओं के स्वामियों की विस्तार से प्ररूपणा की गयी है । उदाहरणस्वरूप क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरण की उत्कृष्ट वेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए बतलाया गया है कि एक हजार योजन प्रमाण आयत जो महामत्स्य स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तट पर स्थित है, वहां वेदना समुद्धात को प्राप्त होकर जो तनुवातवलय से संलग्न है तथा जो मारणान्तिकसमुद्धात को करते हुए तीन विग्रहकाण्डकों को करके अनन्तर समय में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होने वाला है उसके ज्ञानावरण कर्म की क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना होती है। इस उत्कृष्टं वेदना से भिन्न ज्ञानावरण की क्षेत्र की अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना है । इसी प्रकार से दर्शनावरण आदि शेष कर्मों की उत्कृष्ट - अनुत्कृष्ट वेदनाओं की प्ररूपणा की गयी है । वेदनीय कर्म की क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना लोकपूरण केवलिसमुद्धात को प्राप्त हुए केवली के कही गयी है । ज्ञानावरण की क्षेत्रत: जघन्यवेदना ऐसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव के बतलायी है जो ऋतुगति से उत्पन्न होकर तद्भवस्थ होने के तृतीय समय में वर्तमान व तृतीय समयवर्ती आहारकं है, अघन्य योगवाला है, तथा सर्वजघन्य अवगाह से युक्त है । इस जघन्य क्षेत्रवेदना से भिन्न अजघन्य क्षेत्रवेदना कही गयी है । इसी प्रकार से शेष कर्मों की भी क्षेत्र की अपेक्षा अघन्य व अजघन्य वेदना की यहाँ प्ररूपणा की गयी है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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