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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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उत्पन्न हुआ है, वहां पर जो सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में जो सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ है, उक्त देवों में रहते हुए जो कुछ कम दस हजार वर्ष तक सम्यक्त्व का परिपालन कर जीवित के थोड़े से शेष रहने पर पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ है, मिथ्यात्व के साथ मरकर जो फिर से बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तों में उत्पन्न हुआ है, वहां पर जो सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त काल में सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में मृत्यु को प्राप्त होकर जो सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हुआ है, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिकाण्डकघातों के द्वारा पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल में कर्म को हतसमुत्पत्तिक करके जो फिर से भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तों में उत्पन्न हुआ है; इस प्रकार नाना भवग्रहणों में आठ संयमकाण्डकों को पालकर, चार बार कषायों को उपशमा कर, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र संममासंयमकाण्डकों और इतने ही सम्यक्त्वकाण्डकों का परिपालन करके उपर्युक्त प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ जो फिर से भी पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, वहां सर्व लघुकाल में योनि निष्क्रमण रूप जन्म से उत्पन्न होकर जो आठ वर्ष का हुआ है, पश्चात् संयम को प्राप्त होकर और कुछ कम पूर्वकोटि काल तक उसका परिपालन करके जो जीवित के थोड़े से शेष रहने पर दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की क्षपणा में उद्यत हुआ है, इस प्रकार से जो जीव छद्मस्थ अवस्था के अन्तिम समय को प्राप्त हुआ है उसके उक्त छद्मस्थ अवस्था के अन्तिम समय में ज्ञानावरणीय की वेदना द्रव्य से जघन्य होती है । ( यही क्षपितकर्माशिकका का लक्षण है ) ।
३. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में ज्ञानवरणादि आठ कर्मो की जघन्य, उत्कृष्ट एवं जघन्य-उत्कृष्ट वेदनाओं का अल्पबहुत्व बतलाया गया है। इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन ३ अनुयोगद्वारों के पूर्ण हो जाने पर द्रव्यविधान की चूलिका का प्रारम्भ होता है।
इस चूलिका में योग के अल्पबहुत्व और योग के निमित्त से आने वाले कर्मप्रदेशों के भी 'अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करके पश्चात् अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा, इन १० अनुयोगद्वारों के द्वारा योगस्थानों की विस्तृत प्ररूपणा की गई है।