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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३८४ विस्तार से व्याख्यान छठवें खंड महाबन्ध में तीस हजार ग्रंथरचना रूप से किया । इन्हीं दोनों खंडों की परस्पर विस्तार व संक्षेप की अपेक्षा से छठा खंड 'महाबंध' कहलाया और प्रस्तुत खंड खुद्दाबंध या क्षुद्रकबन्ध । __खुद्दाबन्ध की उत्पत्ति प्रथम पुस्तक की प्रस्तावना के पृ. ७२ पर दिखाई जा चुकी है और उसके विषय व अधिकारों का निर्देश उसी प्रस्तावना के पृष्ठ ६५ पर कर दिया गया है। उसके अनुसार बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवाद के चतुर्थ भेद पूर्वगत का जो दूसरा पूर्व आग्रायणीय था उसकी पूर्वान्त आदि चौदह वस्तुओं में पंचम वस्तु ‘चयनलब्धि' के कृति आदि चौबीस पाहुडों में से छठे पाहुड बन्धन के बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान नामक चार अधिकारों में से 'बन्धक' अधिकार से इस खंड की उत्पत्ति हुई है। कर्मबन्ध के कर्ता हैं जीव जिनकी प्ररूपणा जीवट्ठाण खण्ड में सत् संख्या आदि आठ अनुयोग द्वारों के भीतर मिथ्यात्वादि चौदह गुणस्थानों द्वारा व गति आदि चौदह मार्गणाओं में की जा चुकी है। प्रस्तुत खण्ड में उन्हीं जीवों की प्ररूपणा स्वामित्त्वादि ग्यारह अनुयोगों द्वारा गुणस्थान विशेषण को छोड़कर मार्गणास्थानों में की गई है । यही इन दोनों खण्डों में विषय प्रतिपादन की विशेषता है । इस खण्ड के ग्यारह अनुयोगद्वारों का नामनिर्देश स्वामित्त्वानुगम के दूसरे सूत्र में किया गया है जिनके नाम हैं - (१) एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व (२) एक जीव की अपेक्षा काल (३) एक जीव की अपेक्षा अन्तर (४) नाना जीवों की अपेक्षा भंग-विचय (५) द्रव्यप्रमाणानुगम (६) क्षेत्रानुगम (७) स्पर्शनानुगम (८) नाना जीवों की अपेक्षा काल (९) नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर (१०) भागाभागानुगम और (११) अल्पबहुत्वानुगम । इनसे पूर्व प्रस्ताविक रूप से बंधकों के सत्त्वकी भी प्ररूपणा की गई है और अन्त में ग्यारहों अनुयोग द्वारों की चूलिका रूप से 'महादंडक' दिया गया है । इस प्रकार यद्यपि खुद्दाबन्ध के प्रधान ग्यारह ही अधिकार माने गये हैं, किन्तु यथार्थत: उसके भीतर तेरह अधिकारों में सूत्र रचना पाई जाती है जिनके विषय का परिचय इस प्रकार है -- बन्धक- सत्त्वप्ररूपणा इस प्रस्तावना-रूप प्ररूपणा में केवल ४३ सूत्र हैं जिनमें चौदह मार्गणाओं के भीतर कौन जीव कर्मबन्ध करते हैं और कौन नहीं करते यह बतलाया गया है । सब मार्गणाओं का मथितार्थ यह निकलता है कि जहां तक योग अर्थात् मन, वचन, काय की क्रिया विद्यमान है वहां तक सब जीव बन्धक हैं, केवल अयोगी मनुष्य और सिद्ध अबन्धक हैं।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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