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________________ ३४२ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका अवधि और मन:पर्ययज्ञान), तीन अज्ञान (कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि), तीन दर्शन (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन), पांच लब्धियां (क्षायोपशमिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य), क्षायोपशमिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकचारित्र और संयमांसंयम। इन पूर्वोक्त चारों भावों से विभिन्न, कर्मो के उदय, उपशम आदि की अपेक्षा न रखते हुए स्वत: उत्पन्न भावों को परिणामिकभावक कहते हैं । इसके तीन भेद हैं - १ जीवत्व, २ भव्यत्व और ३ अभव्यत्व। इन उपर्युक्त भावों के अनुगम को भावानुगम कहते हैं । इन अनुयोगद्वार में भी ओघ और आदेश की अपेक्षा भावों का विवेचन किया गया है । औघनिर्देश की अपेक्षा प्रश्न किया गया है कि 'मिथ्यादृष्टि' यह कौन सा भाव है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि यह औदयिकभावहै, क्योंकि, जीवों के मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होती है । यहां यह शंका उठाई गई है कि, जब मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व भाव के अतिरिक्तज्ञान, दर्शन, गति, लिंग, कषाय भव्यत्व आदि और भी भाव होते हैं, तब यहां केवल एक औदयिक भाव को ही बताने का कारण है ? इस शंका के उत्तर में कहा गया है कि यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीव के औदयिक भाव के अतिरिक्त अन्य भाव भी होते हैं, किन्तु वे मिथ्यादृष्टित्व के कारण नहीं हैं, एक मिथ्यात्वकर्म का उदय ही मिथ्यादृष्टित्व का कारण होता है, इसलिए मिथ्यादृष्टि को औदयिक भाव कहा गया है। सासादनगुणस्थान में पारिणामिकभाव बताया गया है, और इसका कारण यह कहा गया है कि जिस प्रकार जीवत्व आदि पारिणामिक भावों के लिए कर्मो का उदय आदि कारण नहीं है, उसी प्रकार सासादनसम्यक्त्व के लिए दर्शन मोहनीय कर्म का उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम, ये कोई भी कारण नहीं है, इसलिए इसे यहां पारिणामिक भाव ही मानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यात्वगुण स्थान में क्षायोपशमिकभाव होता है । यहां शंका उठाई गई है कि प्रतिबंधीकर्म के उदय होने पर भी जो जीव के स्वाभाविक गुण का अंश पाया जाता है, वह क्षायोपशमिक कहलाता है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय रहते हुए तो सम्यक्त्वगुण कणिका भी अवशिष्ट नहीं रहती है, अन्यथा सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के सर्वघातीपना नहीं बन सकता है । अतएव सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपरमिक सिद्ध नहीं होता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि सम्यमिथ्यात्वकर्म के उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक.एक मिश्रभाव उत्पन्न होता है। उसमें जो श्रद्धानांश है, वह सम्यक्त्वगुण का अंश है। उसे सम्यग्मिथ्यात्वकर्म का उदय नष्ट नहीं करता है, अतएव सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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