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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १८९ गाथा की खोज कराई, पर वीरसेवामंदिर के पं. परमानन्द जी शास्त्री ने हमें सूचित किया कि यह गाथा न तो प्राकृत पंचसंग्रह में है न तिलोयपण्णत्ति में और न श्वेताम्बरीय कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, जीवसमास विशेषावश्यक आदि ग्रंथों में है । जान पड़ता है कि 'पिंडिका' नाम का कोई प्राचीन ग्रंथ रहा है जो अब तक अज्ञात है । इन तीन गाथाओं को छोड़कर शेष सब कहीं जैसी की तैसी और कहीं किंचित् पाठभेद को लिये हुए गोम्मटसार जीवकांड में भी संगृहीत है। इस विभाग में संस्कृत केवल प्रारंभ में थोड़ी सी पायी जाती है। शेष समस्त रचना प्राकृत में ही हैं। पर यहां विषय की विशेषता ऐसी है कि उसमें प्रतिपादन और विवेचन की गुंजाइश कम है । अतएव जैसी साहित्यिक वाक्यशैली प्रथम विभाग में पायी जाती है वैसी यहां बहुत कम है। जहां कहीं शंका-समाधान का प्रसंग आ गया है, वहीं साहित्यिक शैली पायी जाती है। ऐसे शंका समाधान इस विभाग में ३३ पाये जाते हैं। शेष भाग में तो गुणस्थान और मार्गणास्थान की अपेक्षा जीवविशेषों में गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओं की संख्या मात्र गिनायी गयी है, जिससे वाक्य रचना की व्याकरणात्मक शुद्धि पर ध्यान नहीं दिया गया । पद कहीं सविभक्तिक हैं और कहीं विभक्ति-रहित अपने प्राति पदिक रूप में। समास बंधन भी शिथिल सा पाया जाता है, उदाहरणार्थ 'आहारभयमेहुणसण्णा चेदि' (पृ.४१३) चेदि से पूर्व के पद समास युक्त समझे जांय, या अलग-अलग ? यदि अलग अलग लें तो वे सब विभक्तिहीन रह जाते हैं, यदि समासरूप लें तो 'च' की कोई सार्थकता नहीं रह जाती । संशोधन में यह प्रयत्न किया गया है कि यथाशक्ति प्रतियों के पाठकों सुरक्षित रखते हुए जितने कम सुधार से काम चल सके उतना कम सुधार करना । किंतु अविभक्तिक पदों को जानबूझकर बिना यथेष्ट कारण के सविभक्ति बनाने का प्रयन्त नहीं किया गया । इस कारण प्ररूपणाओं में बहुतायत से विभक्तिहीन पद पाये जांयेगे । इन प्ररूपणाओं में आलापों के नामनिर्देश स्वभावतः पुनः पुनः आये हैं । प्रतियों में इन्हें प्रायः संक्षेपतः आदि के अक्षर देकर बिन्दु रखकर ही सूचित किया है, जैसे 'गुणट्ठाण' के स्थान पर गुण०, 'पज्जत्तीओ' के स्थान पर प. आदि । यदि सब प्रतियों में ये संक्षिप्त रूप एक से होते, तो समझा जाता कि वे मूलादर्श प्रति के अनुसार हैं, अत: मुद्रितरूप में भी उन्हें वैसे ही रखना कदाचित् उपयुक्त होता । किन्तु किसी प्रति में एक अक्षर लिखकर,
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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