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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १८४ 1 पारंगत होने से अनुमानत: त्रैविद्यदेव की उपाधि प्राप्त होती थी । इन्हीं तीन खंडों का संक्षेप सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रकृत गोम्मटसार के प्रथम विभाग जीवकांड में पाया जाता है । इन तीन खंडों के पश्चात् उक्त चौबीस अधिकारों का प्ररूपण कृति वेदनादि क्रम से किया गया है और प्रथम छह अर्थात् बंधन तक के प्ररूपण को अधिकार व अवान्तर अधिकार की प्रधानतानुसार अगले तीन खंडों वेदणा, वग्गणा और महाबंध में विभाजित कर दिया गया है। इन तीन खंडों के विषय विवेचन की समानता यह है कि यहां बंधनीय कर्म की प्रधानता से विवेचन किया गया है । इनमें अन्तिम महाबंध सबसे बड़ा है और स्वतंत्र पुस्तकारूद है । जो उपर्युक्त तीन खंडों के अतिरिक्त इन तीनों में भी पारंगत हो जाते थे, वे सिद्धान्तचक्रवर्ती पद के अधिकारी होते थे । सि.च. नेमिचन्द्र ने इनका संक्षेप गोम्मटसार T कर्मकांड में किया है । भूतबलि रचित सूत्रग्रंथ छठवें बंधन अधिकार के साथ ही समाप्त हो जाता है। शेष निबन्धनादि अठारह अधिकारों का प्ररूपण धवला टीका के रचयिता वीरसेनाचार्यकृत है, जिसे उन्होंने चूलिका कहकर पृथक् निर्देश कर दिया है । उपर्युक्त खंडविभागादि का परिचय पूर्व में दिये हुए मानचित्रों से स्पष्ट तथा समझ में आ जाता है । उन चित्रों में बतलायी हुई जीवट्टाण की नवमीं चूलिका गति- आगति की उत्पत्ति के विषय में एक सूचना कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। यह चूलिका धवला में वियाहपण्णत्ति से उत्पन्न हुई कही गयी है । मानचित्र में व्याख्याप्रज्ञप्ति के आगे (पांचवा अंग) ऐसा लिख दिया गया है, क्योंकि यह नाम पांचवें अंग का पाया जाता है । किन्तु ष्टवाद के प्रथम विभाग परिकर्म के पांच भेदों में भी पांचवां भेद वियाहपण्णत्ति नाम का पाया जाता है । अतएव संभव है कि गति - आगति चूलिका की उत्पादक वियाहपण्णत्ति से इसका अभिप्राय हो ? पांचवे पूर्व णाणपवाद (ज्ञानप्रवाद) के एक पाहुड का उद्धार गुणधराचार्य द्वारा गाथारूप में किया गया । णाणपवाद की बारह वस्तुओं में से दशम वस्तु के तीसरे पाहुड का नाम 'पेज्ज' या 'पेज्जदोस' या 'कसाय' पाहुड था । इसी का गुणधराचार्य ने १८० गाथाओं (और ५३ विवरण - गाथाओं में ) उद्धार किया, जिसका नाम कसायपाहुड है। इसका परिचय स्वयं सूत्रकार व टीकाकार के शब्दों में संक्षेपतः इस प्रकार है -
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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