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________________ किया गया है । विद्वानों की शंकाओं के समाधान दिये गये हैं और भाषा-शास्त्रियों के लिये मध्यकालीन आर्य भाषा की लुप्त कड़ियों को श्रंखलाबद्ध करने की सामग्री भी भरपूर सुलभ की है। षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका नाम से जैनागम की षोडषिक प्रस्तुति की प्रस्तावना में लिखी गई डॉ.जैन की ऐतिहासिक और अत्यंत महत्वपूर्ण कृति को उनकी आकांक्षानुरूप पुस्तकारूढ़ किया जा रहा है। इसमें केवल संकलन है, पुनरावलोकन नहीं। सिद्धान्त सूत्रों पर लिखी गई धवला टीका की शास्त्रीय रचना के मूलगामी अनुवाद और भाषा के साथ जैसी मूल पाठ की संगति बैठी है उसी तरह प्रस्तुत शास्त्रीय भूमिका में संकलित षोड़ष प्राक्कथन और विषय विवेचन की एकधा प्रस्तुति के अंतर्गत संगति और समरसता बनाये रखना हमारा लक्ष्य रहा है । इसीलिये आगम के षट्खंडों का पारस्परिक अनुपात आचार्य वीरसेन की धवलाटीका के विषय-विवेचन के वजन पर ही बना हुआ है। डॉ.हीरालाल जैन का मूल प्राक्कथन और अंग्रेजी में लिखा आमुख भी यथावत है । पुस्तक क्रमांक एक की प्रस्तावना को लगभग पूर्णत: मुखबन्ध उपशीर्षक के साथ, इसी पूर्वकथन में मिला दिया गया है । वह भूमिका का अंग बनकर और प्रभावी हो गया है । दूसरी पुस्तक से सोलहवीं पुस्तक की सामग्री मूल रचना के अनुसार छै अध्यायों में वर्गीकृत है । प्रत्येक अध्याय में किन पुस्तकों की सामग्री दी गई है । इसका उल्लेख अध्याय के पूर्व दिये गये विषय संकेत की सूचना में स्पष्ट है । परिशिष्ट में सर्वप्रथम डॉ.हीरालाल जैन के व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियों की विविध किन्तु संक्षिप्त जानकारी है । फिर अत्यंत महत्वपूर्ण आधार ग्रंथ, संस्था और व्यक्तियों का चित्रमय संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अंत में सभी सोलह पुस्तकों में संकलित की गई पारिभाषिक शब्द सूची दी गई है । सुधीजन सहमत होंगें कि इस शब्द-सूची के आधार पर 'आगम संदर्भ कोश' तैयार कर प्रकाशित करना अत्यंत उपयोगी होगा । षट्खंडागम के मूल सूत्रों के साथ डॉ.हीरालाल जैन द्वारा किये गये मूलगामी हिन्दी अनुवाद यदि तीन खंडों में प्रकाशित किये जा सकें तो जैनागम की सहज जानकारी पाने के लिये जिज्ञासु श्रावक और सुधीजनों के लिये अत्यंत हितकारी कार्य होगा । इस तरह जैन सिद्धान्तग्रंथ जन सामान्य तक पहुंचेंगे और सरलता से उन्हें जीवन में उतारने का मार्ग प्रशस्त होगा। विश्वास है पूज्य उपाध्यायश्री ज्ञानसागर जी के आशीर्वाद से इस योजना को मूर्तरूप देने का ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न होने में न तो विलम्ब होगा और न ही साधनों की कमी होगी।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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