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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१५३ प्रथम अजवइर के समय का उल्लेख उनके वीर निर्वाण के ५८४ वर्ष तक जीवित रहने का मिलता है व अज्ज वइरसेन का उल्लेख वीर-निर्वाण से ६१७ वर्ष पश्चात् का पाया जाता है। इन दोनों आचार्यों से पूर्व अज्जमंगु का उल्लेख है, तथा उनके अनन्तर नागहत्थिका । अत: इन चारों आचार्यों का समय निम्न प्रकार पड़ता है -
वीर निर्वाण संवत् अन्ज मंगु ४६७ अज वइर ४९६ - ५८४ अज्ज वइरसेन ६१७ - ६२० अज नागहत्थी ६२० - ६८९
अज वइर दक्षिणापथ को गये, वे दशपूर्वो के पाठी हुए और पदानुसारी थे तथा उन्होंने पंच णमोकार मंत्र का उद्धार किया । नागहत्थी कम्मपयडि में प्रधान हुए।
दिगम्बर साहित्योल्लेखों के अनुसार आचार्य पुष्पदन्तने पहले पहले 'कम्मपयडी' का उद्धार कर सूत्र रचना प्रारंभ की और उसी के प्रारंभ में णमोकार मंत्र रूपी मंगल निबद्ध किया, जो धवलाटीका के कर्ता वीरसेनाचार्य के मतानुसार उनकी मौलिक रचना प्रतीत होती है । अज्जमखु और नागहत्थि-दोनों ने गुणधराचार्य रचित कसायपाहुड को आचार्य परंपरा से प्राप्तकर यति वृषभाचार्य को पढ़ाया, और यतिवृषभाचार्य ने उस पर चूर्णिसूत्र रचे, ऐसा उल्लेख धवलादि ग्रंथों में मिलता है । यतिवृषभकृत 'तिलोयपण्णत्ति' में 'वइरजस' नाम के आचार्य का उल्लेख मिलता है जो प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम कहे गये हैं। यथा -
पण्हसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम । १ .
आश्चर्य नहीं जो ये अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वइरजस (वज्रयश) श्वेताम्बर पट्टावलियों के पदानुसारी वइर (वज्रस्वामी) ही हों। पदानुसारित्व और प्रज्ञाश्रमणत्व दोनों ऋद्वियों के नाम हैं और ये दोनों ऋद्वियां एक ही बुद्धि ऋद्वि के उपभेद हैं । धवलान्तर्गत वेदनाखंड में निबद्ध गौतम स्वामीकृत मंगलाचरण में इन दोनों ऋद्वियों के धारक आचार्यों को नमस्कार किया गया है, यथा -
___ णमो पदानुसारीणं ॥ ८॥ णमो पण्हसमणाणं ॥१८॥
१ संतपरूवणा १, भूमिका पृ. ३०, फुटनोट