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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १५१ भी कहा गया है कि वहां के 'तुंगिया' नामक नगर में उन्होंने चातुर्मास व्यतीत किया था । वहां से उन्होंने अपने एक शिष्य को सोपारक पत्तन (गुजरात) में विहार करने की भी आज्ञा दी थी। इन उल्लेखों पर से उनके पुष्पदन्ताचार्य की विहार भूमि से संबन्ध होने की सूचना मिलती है। तपागच्छ पट्टावली में वइरस्वामी से पूर्व आर्यमंगु का उल्लेख आया है जिनका समय नि.सं. ४६७ बतलाया गया है । यथा - सप्तषष्टयधिकचतुः शतवर्षे ४६७ आर्यमंगुः । १ आर्यमंगु का कुछ विशेष परिचय नन्दीसूत्र पट्टावली में इस प्रकार आया है। भगं करगं सरगं पभावगं णाण-त - दंसण-गुणाणं । वंदाभि अज्जमंगु सुयसागरपारगं धीरं ॥ २८ ॥ अर्थात् ज्ञान और दर्शन रूपी गुणों के वाचक, कारक, धारक और प्रभावक, तथा श्रुतसागर के पारगामी धीर आर्यमंगुकी मैं वन्दना करता हूँ । इनके अनन्तर अज्ज धम्म और भगुत्त के उल्लेख के पश्चात् अज्जवयर का उल्लेख है। इन उल्लेखों पर से जान पड़ता है कि ये आर्यमंगु अन्य कोई नहीं, धवला जयधवला में उल्लिखित आर्यमंखु ही है; जिनके विषय में कहा गया है कि उन्होंने और उनके सहपाठी नागहत्थी ने गुणधराचार्य द्वारा पंचमपूर्व ज्ञानप्रवाद से उद्धार किये हुए कसायपाहुड का अध्ययन किया था और उसे (यतिवृषभाचार्य) को सिखाया था । उक्त नन्दीसूत्र पट्टावली में अज्जवर के अनन्तर अज्जरक्खिअ और अज्ज नन्दिलखमण के पश्चात् अज्ज नागहत्थी का भी उल्लेख इस प्रकार आया है - : बसह - Tags वायगवंसो जसवंसो अज्ज - नागहत्थीणं । वागरण - करणभंगिय-कम्मपयडी - पहाणाणं ।। ३० ।। अर्थात् व्याकरण, करणभंगी व कर्मप्रकृति में प्रधान आर्य नागहस्ती का यशस्वी वाचक वंश वृद्धिशील होवे । इसमें सन्देह को स्थान नहीं कि ये ही वे नागहत्थी हैं जो धवलादि ग्रंथों में आर्यमंखु के सहपाठी कहे गये हैं । उनके व्याकरणादि के अतिरिक्त 'कम्मपयडी' में प्रधानता का उल्लेख तो बड़ा ही मार्मिक है । श्वेताम्बर साहित्य में कम्मपयडी नामका एक ग्रंथ १ पट्टावली समुच्चय, पृ. १३.
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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