________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१०४ ____४. मध्यवर्ती क, ग. च, ज, त, द, और प, के लोप के तो उदाहरण सर्वत्र पाये ही जाते हैं, किन्तु इनमें से कुछ के लोप न होने के भी उदाहरण मिलते हैं। यथा-ग-सजोगसयोग; संजोग-संयोग; चाग-त्याग; जुग-जुग; आदि। त - वितीद-व्यतीत । द - छदुमत्थछद्यस्थ बादर-बादर; जुगादि-युगादि; अणुवाद-अनुवाद; वेद, उदार, आदि ।
५. थ और घ के स्थान में प्राय: ह पाया जाता है, किंतु कहीं-कहीं थ के स्थान में ध और ध के स्थान में ध ही पाया जाता है । यथा-पुध-पृथक; कधं-कथम्; ओधि-अवधि; (सू.१३१) सोधम्म-सौधर्म (सू.१६९); साधारण (सू.४१); कदिविधो-कतिविधः; (गा.१८) आधार (टी.१९)
६. संज्ञाओं के पंचमी-एकवचन के रूप में सूत्रों में व गाथाओं में आ तथा टीका में बहुतायत से दो पाया जाता है । यथा- सूत्रों में - णियमा-नियमात् । गाथाओं में - मोहा-मोहात् । तम्हा-तस्मात् । टीका में - णाणादो, पढमादो, केवलादो, विदियादो, खेत्तदो, कालदो आदि।
संज्ञाओं के सप्तमी-एकवचन के रूप में म्मि और म्हि दोनों पाये जाते हैं । यथासूत्रों में - एकम्मि (३६, ४३, १२९, १४८, १४९) आदि । एक्कम्हि (६३, १२७) गाथाओं - एक्कम्मि, लोयम्भि, पक्खम्हि, मदम्हि, आदि । टीका में - वत्थुम्मि, चइदम्हि, जम्हि, आदि ।
___ दो गाथाओं में कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति उ भी पाई जाती है। जैसे थावरु (१३५) एक्कु (१४६) यह स्पष्टत: अपभ्रंश भाषा की ओर प्रवृत्ति है और उस लक्षण का शक ६३८ से पूर्व के साहित्य में पाया जाना महत्वपूर्ण है।
७. जहां मध्यवर्ती व्यंजन का लोप हुआ है वहां यदि संयोगी शेष स्वर अ अथवा आ हो तो बहुधा य श्रुति पायी जाती है। जैसे - तित्थयर-तीर्थकर: पयत्थ-पदार्थ; वेयणावेदना; गय-गत; गज; विमग्गया-विमार्गगाः, आहारया-आहारकाः, आदि । . अ के अतिरिक्त 'ओ' के साथ भी और क्वचित् ऊ व ए के साथ भी हस्तलिखित प्रतियों में य श्रुति पाई गई है । किन्तु हेमचन्द्र के नियम का १ तथा जैन शौरसेनी के अन्यत्र प्रयोगों का विचार करके नियम के लिए इन स्वरों के साथ य श्रुति नहीं रखने का प्रस्तुत ग्रंथ में प्रयत्न किया गया है । तथापि इसके प्रयोग की ओर आगे हमारी सूक्ष्मदृष्टि रहेगी। (देखों ऊपर पाठ संशोधन के नियम पृ.१३)