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अतः तू ज्ञान में सदा लीन रहे । इसी में सदा संतुष्ट रहा । इसी से तृप्त हो । इसी से तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा।
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-१ गम्यमाणित -
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१५२. सुबहुं पि सुयमहीयं, किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स।
अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ॥१॥ चारित्र-शून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी वैसे ही व्यर्थ है, जैसे अन्धे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना।
१५३. थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो।
जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण ।।२।। चारित्रसम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान भी निष्फल है।
१५४. णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो।
सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥३॥ निश्चय दृष्टि के अनुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए तन्मय होना ही सम्यक् चारित्र है । ऐसे चारित्रशील योगी को निर्वाण की प्राप्ति होती है।
१५५. जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं।
तं चारित्तं भणियं, अवियप्पं कम्मरहिएहिं ॥४॥ जिसे जानकर योगी पाप व पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र कहा गया है।
१५६. अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि णियमेण।
अब्भंतर-दोसेण हु कुणदि णरो बाहिरे दोसे ।।५।। आभ्यन्तर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती ही है । आभ्यन्तर-दोष
सेही मनुष्य कावदकरता है। जिनसूत्र/३६