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________________ ३४० तीर्थंकर पार्श्वनाथ इस आयागपट्ट पर सप्तफणों वाली पार्श्वप्रभु की प्रतिमा अंकित है जो सबसे प्राचीनतम है, इसमें पार्श्वप्रभु के दाए बांए एक एक दिगम्बर मुनि नमस्कार मुद्रा में खड़े हैं, पट्ट के चारों ओर कमल तथा अंगूर की बेलियां (वल्लरियों) समलंकृत हैं। इसे ईहामृगों एवं श्री वत्सों से सजाया गया है। सप्त फणावली का छत्र लगा है तथा फणों के ऊपर एक स्तम्भ पर लगी पताका लहरा रही है। . (२) मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त एक चौकी पर प्रभु पार्श्व की नामांकित चौकोर प्रस्तर पट्टिका प्राप्त है। किसी कारण से प्रभु की प्रतिमा तो नष्ट हो गई है पर पट्टिका पर निम्न लेख पार्श्व प्रतिमा की उपस्थिति का संकेत देती है यथा : “स्थानिकिये कुले गतिस्य उग्गहिनियशियो वाचको घोषको अर्हतो पार्श्वस्य प्रतिमा"। यद्यपि इसमें संवत्सरादि काल का उल्लेख न होने से उपर्युक्त आयाग पट्ट से भी प्राचीन प्रतीत होती है। संभवत: कुषाणकाल से भी प्राचीन है। (३) लखनऊ म्यूजियम में ४४ ग ६५ से.मी. आकार की भूरे रंग के वलुआ पत्थर पर पार्श्व प्रभु का सिर विद्यमान है। सिर्फ फणावली से ही यह पार्श्व प्रतिमा ज्ञात होती है यह हुविष्क व वासुदेव के शासनकाल की निर्मित प्रतीत होती है। यहां पार्श्व प्रभु के तीन सिर और हैं जो फणावली युक्त हैं। साथ ही कलापूर्ण अष्ट मांगलिक द्रव्य अंकित हैं। इनमें चक्र, नन्दीपाद, त्रिरत्न पुष्पगुच्छक, घट, श्रीवत्स, मीन युगल स्वस्तिक आदि सुन्दर ढंग से उकेरे गए हैं। (४) हुविष्क सं. ५८ की एक पार्श्व प्रतिमा कंकाली टीले से प्राप्त है। पहले यह शीर्ष विहीन थी बाद में सिर तोड़ कर जोड़ दिया हैं। चरण चौकी पर अंकित है “हुविष्क संवत्सरे अष्टापन-----" यह संवत्सर अंकों में न होकर शब्दों में लिखित है। सर्पफण के भीतर हवा में उड़ता हुआ
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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