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________________ ३०४ तीर्थंकर पार्श्वनाथ - पार्श्व प्रतिमाओं में फणावली के अंकन को लेकर अवश्य कुछ विविधताएं प्रचलित रही हैं। पांच-सात-नौ-ग्यारह-शत और सहस्र फणों तक की फणावली भगवान् के मस्तक पर बनाई जाती रही है। पांच फणों वाली कुछ मूर्तियां सुपार्श्वनाथ भगवान् की भी प्राप्त होती हैं, परन्तु सात या उससे अधिक फणों वाली फणावली तो प्राय: पार्श्वनाथ भगवान के मस्तक पर ही बनाये जाने की हमारे कलाकारों की आदि परम्परा रही हैं। भटक रहा है कमठ का जीव पुराण-कथाओं के अनुसार कालसंबर भयभीत होकर भाग गया था। मोक्ष तो पार्श्वनाथ भगवान् का हुआ। कमठ का जीव तो आज भी संसार में अपना बैरभाव लेकर घूम रहा है। इसीलिये तो जहां-जहां पार्श्वनाथ के प्रसिद्ध तीर्थ हैं, वहां-वहां अवश्य आज भी उपद्रव और उपसर्ग होते रहते हैं। लगता है कमठ का परिवार बढ़ ही रहा है। एक बात निश्चित है कि इस कलिकाल में पार्श्वनाथ नहीं हैं, इसलिये उन उपद्रवों का सामना करने कोई धरणेन्द्र-पद्मावती भी नहीं आयेंगे। आवश्यकता पड़ने पर हम में ही किसी को धरणेन्द्र और किसी को पद्मावती बनना पड़ेगा। तभी हमारे धर्मायतनों पर आने वाले उन उपद्रवों का निवारण,हो सकेगा। प्रत्येक जैन श्रावक-श्राविका को यह बात निरन्तर स्मरण रखनी होगी और अपने दायित्व के प्रति, अहर्निशि जागरूक बने रहना होगा। धर्मायतनों के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वाह का अन्य कोई उपाय नहीं है।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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